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प्रवचन-सुधा
७, मिथ्याकार---अपने दुष्कृत की निन्दा करना । ८. तथाकार --गुरु-प्रदत्त उपदेश के लिए अपनी स्वीकृति प्रदान करना । है. अभ्युत्थान-गुरुजनों के आने पर खड़ा होना। १०. उपसम्पदा-दूसरे गण वाले आचार्य के समीप रहने के लिए उनका
शिप्यत्व स्वीकार करना । इस दश विध समाचारी के अतिरिक्त साधुओं के देवसिक और रात्रिक कर्तव्यों का भी इस अध्ययन में बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है।
सत्तावीसवां खलुकीय' अध्ययन है । खलुकीय नाम दुष्ट बैल का है । जैसे दुष्ट बैल गाड़ी और गाड़ीवान दोनों का नाश कर देता है, कभी जुए को तोड़कर भाग जाता है, कभी भूमि पर पड़कर गाड़ी वान को परेशान करता है, कभी कूदता है, कभी उछलता है और कभी गाय को देखकर उसके पीछे भागता है, उसी प्रकार अविनीत एवं दुष्ट शिष्य भी अनेक प्रकार से अपने गुरु को परेशान करता है; कभी भिक्षा लाने में मालस्य करता है, कभी अहंकार प्रकट करता है, कभी बीच में ही अकारण वोल उठता है और कभी किसी कार्य के लिए भेजे जाने पर उसे विना किये ही लौट जाता है। तब धर्माचार्य विचार करते हैं कि ऐसे अविनीत शिष्यों से तो शिष्यों के विना रहना ही अच्छा है और इसी कारण वे दुष्ट शिष्यों का संग छोड़कर एकाकी ही तपश्चरणादि में संलग्न रहते हैं।
अट्ठाईसवें अध्ययन का नाम 'मोक्षमार्ग-गति' है। इसमें बतलाया गया है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्नान, सम्यक्चारित्र और सम्यकृतप इन चारों के समायोग से मोक्ष की प्राप्ति होती है । इसलिए इन चारों को विधिवत् धारण करना चाहिए । इस अध्ययन में सम्यग्दर्शन के निसर्गरुचि आदि दश भेदों का विस्तार से विवेचन किया गया है। सम्यग्ज्ञान के मतिज्ञानादि पांच भेदों का, सम्यक् चारित्र के सामायिक आदि पांच भेदों का और सम्यक्तप के बारह भेदों का वर्णन करके अन्त में कहा गया है कि
नाणेण जाणई भावे, दसणेण य सह ।
चरित्तण निगिण्हाई, तवेण परिसुज्झई ।। जीव ज्ञान से पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धान करता है, चारित्र से नवीन कर्मों का निग्रह करता है और तप से पूर्व संचित कर्मों का क्षय करके परिशुद्ध हो जाता है। इसलिए मर्पिगण सदा ही इन चारों को धारण कर सिद्धि को प्राप्त होते हैं।