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धनतेरस का धर्मोपदेश
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जो रसोका लोलुपी नहीं है, गृहत्यागी है, अकिंचन है, अनासक्त है और सर्व कर्मों से रहित है, में उसी को ब्राह्मण कहता हू । अन्त मे उन्होने कहा
न वि मुडिएण समणो, न ओकारण वमणो । न मुणी रणवासेण, कुसचीरेण न तावसो । समयाए समणो होइ, बभचरेण बंभणो।
नाणेण य मुणी होइ, तण होइ तावसो । अर्थात्-~- केवल सिर मुडा लेने से कोई थमण नहीं होता, 'ओ' का उच्चारण करने से ब्राह्मण नहीं होता, अरण्य म रहन स कोई मुनि नही होता और कुशा का चीवर पहिनने मान से कोई तापस नहीं होता। किन्तु समभाव की साधना करने से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य के पालन से ब्राह्मण होता है, ज्ञान की आराधना से-मनन करने से मुनि होता है और तप करने से तापस कहलाता है।
एवं गुण समाउत्ता जे भवति दिउत्तमा ।
ते समत्था उ उद्धतु पर अप्पाणमेव य ॥ इस प्रकार के गुणो से सम्पन्न जो द्विजोत्तम होते हैं, वे ही अपना और पराया उद्धार करने में समर्थ होते हैं।
साधु के ऐसे मामिक वचनो को सुनकर वह विजयधोप ब्राह्मण वहुत प्रसन्न हुआ और उसने भी जिन-प्रवज्या स्वीकार करली और वे जयघोष विजयघोप मुनि सयम और तप के द्वारा सचितकर्मों का क्षय करके अनुत्तर सिद्धि को प्राप्त हुए।
छवीसवा अध्ययन 'समाचारों का है। साधुआ के आचार-व्यवहार को समाचारी कहते हैं। यह समाचारी दश प्रकार की होती है । उनके नाम और स्वरूप सक्षेप मे इस प्रकार है
१. आवश्यकी - अपने स्थान से वाहिर जाते समय की जाती है । २. नैपेधिको अपने स्थान में प्रवेश करते समय की जाती है। ३ आपृच्छना कार्य करने से पूर्व गुरु से पूछना । ४ प्रतिपृच्छना-कार्य करने के लिए पुन पूछना। ५. छन्दना—पूर्व गृहीत द्रव्यो से गुरु आदि को निमत्रण करना । ६. इच्छाकार–साधुमो के धार्य करने या कराने के लिए इच्छा प्रकट
करना ।