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प्रवचन-सुधा
योग-निग्रह को गुप्ति कहते हैं । गुप्तियां तीन हैं --~ १ मनोगुप्ति-- मन के असद् प्रवर्तन का निग्रह । २ वचनगुप्ति-वचन के अमन-व्यवहार का निर्वतन । ३ फायगुप्ति-शरीर को अमद् चेप्टाओं का नियंत्रण ।
जिस प्रकार हरे-भरे सेन की रक्षा के लिए बाड़ की, नगर की रक्षा के लिए कोट और खाई की आवश्यकता होती है उसी प्रकार धामण्य की सुरक्षा के लिए एवं कर्मान्नव-निरोध के लिए उक्त तीनों गुप्तियों गत परिपालन अत्यन्त आवश्यक है। इस अध्ययन में उक्त आठों प्रवचन माताओं का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा बहुत सुन्दर वर्णन किया गया है और अन्त मे कहा गया है कि ..
एया पवयणमाया, जे सम्म मायरे मुणी ।
से खिप्पं सन्वसंसारा विप्पमुच्चइ पंडिए !! जो विद्वान् मुनि इन प्रवचन माताओं का सम्यक माचरण करता है, वह शीघ्र ही संसार से मुक्त हो जाता है।
पच्चीसवां 'यज्ञीय' अध्ययन हैं । इसमें बतलाया गया है कि एक वार जयघोप मुनि मासक्षमण का पारणा के लिए वाराणसी नगरी में गये । वहां पर विजयघोप ब्राह्मण ने यज्ञ का प्रारम्भ किया हुआ था अतः ये मुनि वहां पहुंचे। विजयघोष ने कहा--जो वेदो को जानते हैं, तदनुसार यज्ञादि करते हैं और जो अपने वा दूसरो के उद्धार करने में समर्थ हैं, मैं उन्ही को भिक्षा दंगा, तुम जैसे व्यक्तियों को नहीं । इस बात को सुनकर मुनि रप्ट नहीं हुए, प्रत्युत उसको समझाने के लिए बोले----
न वि जाणसि बंधमुह, न वि जन्नाण जं मुहं ।
नपखत्ताण मुह जं च, जं च धम्माण वा मुहं ॥ तुम वेद के मुख को नहीं जानते, यनों के मुख को भी नहीं जानते हो।
मुनि के ऐसा कहने पर यजकर्ता ब्राह्मण वोला-आप ही बतलाइये कि वेदों का मुख क्या है, यज्ञ का, नक्षत्रों का और धर्म का मुख्न क्या है ? उसके ऐसा पूछने पर मुनि ने उक्त प्रश्नों का अध्यात्म-परक बड़ा ही सुन्दर उत्तर देते हुए बताया कि ऐसे यज्ञ का वा वही ब्राह्मण हो सकता है जो कि इन्द्व वस्तु की प्राप्ति में राग नहीं करता, अनिष्ट संयोग में उप नहीं करता, जो सर्वप्रकार के भय से रहित है, शान्त है, जितेन्द्रिय है, बस-स्थावर जीवों का रक्षक है, असत्य नहीं बोलता, अदत्त वस्तु को नहीं लेता, ब्रह्मचर्य का पूर्ण रूप से पालन करता है, सांसारिक परिग्रह में लिप्त नहीं होता है,