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धनतेरस का धर्मोपदेश - उसके मुख से ये वचन निकले-अहा, किये हुए अशुभकर्मों का यह दुखद अन्त है । इस घटना से वह बोधि को प्राप्त हुआ और माता-पिता से अनुज्ञा लेकर साधु बन गया । इस स्थल पर बतलाया गया है कि साधु को किस प्रकार परीषह और उपसर्गो को शान्तिपूर्वक सहन करना चाहिए । देशदेशो मे विचरण करते हुए किस प्रकार सिंह वृत्ति रखे और आत्म-निग्रह करे । कहा गया है कि
पहाय रागं च तहेव दोस, मोहं च भिक्खू सयय वियक्खणो! - मेरुब्ववाएण अकंपमाणो, परीसहे आयगुत्ते सहेज्जा ।।
अर्थात्-विचक्षण भिक्षुराग द्वप और मोह का त्याग करके आत्म-गुप्त वनकर परीपहो को इस प्रकार अविचल भाव से सहे और अकम्प बना रहे, जैसे कि वायु के प्रवल वेग से सुमेरु पर्वत अव म्प बना रहता है।
इस प्रकार वडे मनोयोग के साथ परीपह और उपसर्गो को सहन करते हुए कर्मो का क्षयकर वे भवसागर से पार हो गये ।
वमन को मत पीओ! बाईसवें अध्ययन मे 'रयनेमि' और राजमती के उद्दोधक सवाद का चित्रण है । इसमे बताया गया है कि जब भगवान् अरिष्टनेमि ने भय से सत्रस्त, वाडों और पिंजरो मे निरुद्ध दीन-दुखी प्राणियो को देखा, तव सारथी से पूछा कि ये पशु-पक्षी यहा क्यो रोके गये है । सारथी बोला
अह सारही तओ भणइ, एए भद्दा उ पाणिणो ।
तुज्झं विवाहकज्जम्मि, भोयावे वहु जण 1॥ नाथ, ये भद्र प्राणी आपके विवाह मे आये हुए मेहमानो को खिलाने के लिए यहा रोके गये है। सारथी के ये वचन सुनकर भगवान अरिष्टनेमि सोचने लगे -
जइ मज्झ कारणा एए, हम्मिहिंति बहू जिया ।
न मे एय तु निस्सेस, परलोगे भविस्सई ॥ यदि मेरे निमित्त से ये बहुत से जीव मारे जायेंगे तो यह परलोक मे मेरे लिए श्रेयस्कर न होगा।
यह विचार आते ही उन्होने सर्व वस्त्राभूपण सारथी को दे दिये और आपने रैवतपर्वत (गिरिनार) पर जाकर जिन दीक्षा ले ली। जब राजमती ने यह समाचार सुना तो वह मूच्छित होकर गिर पड़ी। परिजनो के द्वारा