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प्रवचन-सुधा का नाथ हूं। आप मुझे अनाथ कसे कहते हो ? तब मुनि ने कहा --- आप अनाथ का मतलब नहीं जानते हैं। सुनिये--मैं कौशाम्बी नगरी में रहता था । मेरे पिता अपार धन के स्वामी थे। एक बार मेरी आंख में भयंकर दर्द हुआ । उसे दूर करने के लिए पिता ने बहुतेरे उपाय किये और धन को पानी के समान बहाया। परन्तु मेरी आंख का दर्द नहीं मिटा । सभी सगे सम्बन्धियों ने भी बहुत प्रयत्न किये और आंसू बहाये। मगर कोई भी मेरी पीड़ा को वटा नहीं सका। तब मुझे ध्यान आया कि मैं अनाथ हूं। पीड़ा से पीड़ित होकर एक दिन सोते समय मैंने विचार किया कि यदि मैं इस रोग से मुक्त हो जाऊँगा तो मुनि वन जाऊंगा । पुण्योदय से जैसे-जैसे रात्रि व्यतीत होती गई वैसे-वैसे ही मेरी पीडा भी शान्त होती गई । सवेरा होते-होते मैं बिलकुल स्वस्थ हो गया । अत: मैं साधु बन गया। अब मैं अपना नाथ हूँ और अपना तथा स-स्थावर जीवों का रक्षक भी हूं। मैं अपनी आत्मा पर शासन कर रहा हूं, अतः मैं सनाथ हूं। मुनि के ये वचन स्मरणीय हैं -
त तो हं नाही जाओ, अप्पणो य परस्स य ।
सन्वेसिं चेव भूयाणं, तसाण थावराण य ॥ श्रेणिक राजा सनाथ और अनाथ की यह परिभाषा सुन कर बहुत विस्मित हुए। उनके ज्ञान नेत्र खुल गये और मुनि से बोले- भगवन, आप वास्तव में सनाथ है। पुनः राजा ने धर्म-देशना के लिए प्रार्थना की । तब मुनिराज ने धर्म का वड़ा मार्मिक उपदेश दिया और साधु कर्तव्यों का विस्तृत विवेचन किया । जिसे सुनकर श्रेणिक बोले -
तं सि नाही अणाहाण, सवभूयाण संजया ।
खामेमि ते महाभाग इच्छामि अणु सासण॥ आप अनाथों के नाथ हो, सब जीवों के नाथ हो । हे महाभाग, मैं आपसे क्षमा चाहता हूं और आपसे अनुशासन चाहता हूं । यह कह कर और उनकी वन्दना करके श्रेणिक अपने स्थान को चले गये ।
इक्कीसवां 'समुद्रपालीय' अध्ययन है। इसमें समुद्रपाल नामके एक श्रेष्ठ पुन की कथा है, जिसमे बताया गया है कि एक बार जब वह अपने महल के झरोखे में बैठा हुआ था, तब उसने देखा कि एक पुरुष को बांध कर राजपुरुप वध्यभूमि को ले जारहे हैं। उसे देखकर सहसा उसके हृदय में वैराग्य का संचार हुआ।
तं पासिऊण संविग्गो, समुद्दपालो इणमन्ववी। अहोऽसुभाण कम्माणं, णिज्जाणं पावगं इमं ।।