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प्रवचन-सुधा
शीतलोपचार किये जाने पर जब वह होश में आई, तो अपने जीवन को धिक्कारने लगी, अन्त में उसने भी प्रवज्या अंगीकार कर ली।
एक वार जब वह रैवतक पर्वत पर जा रही थी तब पानी बरसने से वह भींग गई। वह वस्त्र सुखाने के लिए एक गुफा में जा पहुंची और यथा जात होकर वस्त्र सुखाने लगी। अंधेरे के कारण उसे यह पता नहीं चला कि यहां पर कोई वैठा हुआ है। रचनेमि जो कि अरिष्टनेमि का छोटा भाई था, वह साघु वन गया था और उसी गुफा में ध्यान कर रहा था। जब उसने नग्न रूप में राजमती को देखा तो कामान्ध होकर और अपना परिचय देकर बोला
एहि ता भुजिमो भोए, माणुस्सं खु सुदुल्लहं ।
मुत्तमोगा तो पच्छा, जिणमग्गं चरिस्सिमो॥ आओ, हम भोगों को भोंगें । निश्चय ही मनुष्य जीवन अति दुर्लभ है: भोगों को भोगने के पश्चात् फिर हम लोग जिनमार्ग पर चलेंगे । रथनेमि का यह प्रस्ताव सुनकर राजमती ने उसे डाटते हुए कहा
धिरत्थ तेजसोकामी, जो तं जीवियकारणा।
वन्तं इच्छसि आवेड, सेयं ते मरणं भवे ॥ है अयशकामिन्, तुझे धिक्कार है जो तू भोगी जीवन के लिए वमन की हुई वस्तु को पीने की इच्छा करता है। इससे तो तेरा मरना ही अच्छा है।
राजमती ने कहा-तू गन्धन सर्प के समान वमित भोगों को भोगने की इच्छा करके अपने पवित्र कुल को कलंकित मत कर । अन्त में जैसे मदोन्मत्त हाथी महावत के अंकुश-प्रहार से वश में या जाता है, उसी प्रकार राजमती के युक्ति-युक्त उद्बोधक वचनों से रथनेमि धर्म में स्थिर हो गए और उत्तम श्रमण धर्म का पालन कर अनुत्तर पद को प्राप्त हुए ।
तेवीसवां अध्ययन केशी और गौतम के संवाद का है । केशी मुनि पार्श्व परम्परा के साधु थे और गौतम भगवान महावीर के प्रधान शिष्य थे । एक-वार ग्रामानुग्राम विचरते हुये दोनो सन्त अपने संघ परिवार के साथ श्रावस्ती नगरी पहुंचे । केशीश्रमण तिन्दुक उद्यान मे ठहरे और गौतम स्वामी कोष्टक उद्यान, में ठहरे । दोनों शिप्य आपस मे मिलते और पारस्परिक भेदों की चर्चा करते । इन दोनों मे केशी श्रमण ज्येष्ठ थे, अत: गौतम अपने शिष्य-परिवार के साथ उनसे मिलने के लिये गये । केशी ने सर्व संघ के साथ उनका सत्कार किया और दोनों मे कुशल-प्रश्न के पश्चात् तात्त्विक चर्चा होने लगी। केशी ने