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धनतेरस का धर्मोपदेश
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तुम लोगों ने बहुत बुरा काम किया है। जाओ, इनसे क्षमा मांगो । अन्यथा कुपित होने पर ये समस्त संसार को भस्म कर सकते हैं । तब उन लोगों ने जाकर मुनि से क्षमा याचना की । यक्ष ने उन ब्राह्मण कुमारों को स्वस्थ कर दिया । अन्त में मुनि ने उन ब्राह्मणों को सत्यार्थ धर्म का उपदेशं दिया और कहा
छज्जीवकाए असमारभंता, मोसं अदत्तं च असेवमाणा । परिग्गहं इथिओ माणमायं, एवं परिमाय चरंति बंता ॥ सुसंवुडो पंचहि संवरहि, इहजोवियं अणवकखमाणो ।
बोसट्ठकाओं सुइचत्तदेहो, महाजयं जमई जन्नसिळें । जो छह कायावाले जीवों की हिंसा नहीं करते हैं, झूठ नहीं बोलते, अदत्त वस्तु नही लेते, स्त्री के और परिग्रह के त्यागी हैं, क्रोध, मान, माया आदि को जीतते हैं, जितेन्द्रिय हैं, पांचों संबरों से सुसंवृत हैं, काय से भी ममत्व-रहित हैं, वे ही सच्चा महान् यज्ञ करते है। - उन्होंने बतलाया कि उस सत्यार्थ यज्ञ में तप ही अग्नि है, जीव ही उसका हवनकुण्ड है, योग ही शुचित्रवा घी डालने की करछियां है, शरीर ही समिधा है, कर्म ही ईंधन हैं और संयम ही शान्ति पाठ है इस प्रकार के यज्ञ को जो करते हैं, वे ही परम पद को प्राप्त करते हैं। इसलिए तुम लोग इस पाप यन को छोड़कर धर्मयज्ञ को करो। इस प्रकार वे हरिकेशवलं मुनि ब्राह्मणों को धर्मोपदेश देकर चले गये और उन ब्राह्मणों ने सत्यधर्म स्वीकार कर लिया ।
तेरहवें अध्ययन का नाम चित्तसम्भूतीय है। इसमें बताया गया है कि चित्त और सम्भूत ये दो भाई थे। दोनों साधु बनकर साधना करने लगे। सम्भूत ने एक चक्रवर्ती की विभूति को देखकर निदान किया कि तप के फल से मुझे भी ऐसी ही विभूति प्राप्त हो । चित्र ने उसे ऐसा निदान करने से रोका । परन्तु वह नहीं माना। मरण करके दोनों स्वर्ग गये । वहा से चव कर सम्भूत का जीव ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती हुआ और चित्त का जीव स्वर्ग से आकर एक सेठ का पुत्र हुया । पूर्वे भव का स्मरण हो जाने से वह युवावस्था में ही साधु बन गया। ग्रामानुग्राम विचरते हुए वे काम्पिल्य पुर आये । ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती उनकी वन्दना को गया। चक्रवर्ती को भी जातिस्मरण हो गया। अतः उसने चित्त साधु से दोनों के पूर्वभव कहे । तत्पश्चात् पूर्वभव के भ्रातुस्नेह से उसने चित्त साधु से कहा-तू क्यों प्रव्रज्या के कष्ट भोगता है ? अत: इसे छोड़कर और मेरे पास आकर सर्व प्रकार के सांसारिक सुखों को भोग ।