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प्रवचन-सुधा
नट्टेहि गोएहि य वाइपहि, नारीजणाई परिवारयंतो । मुंजाहि भोगाइं इमाई भिक्खू, मग रोयई पव्वज्जा हु दुक्खं ।। अर्थात्-है भिक्षु, तू नाट्य, गीत और बाद्यों के साथ नारीजनों को परिवृत करता हुआ इन भोगों को भोग । यह मुझे रुचता है । प्रनज्या तो वास्तव में दुःखकारी है। यह सुनकर चित्त भिक्षु ने उत्तर दिया---
सन्वं विलंबिय गोयं, सव्वं न विडंवियं ।
सव्वे आभरणा भारा, सब्वे कामा दुहावहा ।। है राजन्, सव गीत विलाप हैं, सव नाट्य विडम्बना हैं, सब आभरण भार है और सब काम भोग दुःखदायी हैं ।
इस प्रकार दोनों में राग और विराग की विस्तृत चर्चा होती है। परन्तु चक्रवर्ती अपने काम-भोगों को नहीं छोड़ सका। क्योंकि जो निदान करता है, उसकी काम-भोगों में तीन वृद्धि होती है। अतः वह मरकर नरक गया और चित्त मुनि संयम पालन करके मुक्ति को प्राप्त हुआ । इस अध्ययन का सार यह है कि मनुष्य को चाहिए कि वह धर्म-सेवन करके उसके फल पाने को निदान नहीं करे । किन्तु कर्म-जाल से छूटने के लिए ही तपस्या करे ।
त्याग के मार्ग पर चौदहवें अध्ययन का नाम 'इपुकारीय' है। इसमें बताया गया है कि कुरुदेश में इषुकार नाम का एक नगर था उसके राजा का नाम भी इपुकार था। उसी नगर में भृगु पुरोहित था। सन्तान के न होने से वह और उसकी स्त्री दोनों चिन्तित रहते थे। अन्त में बहुत दिनों के पश्चात् एक साधु के आशीर्वाद से दो युगल पुन उत्पन्न हुए। साधु ने कह दिया था कि वे पुत्र साधु को देखते ही साधु बन जावेंगे, अतः तुम उनको रोकने का प्रयत्न मत करना । समय पर उसकी स्त्री के गर्भ रहा और दो पुत्र एक साथ उत्पन्न हुए। जब वे कुछ बड़े हुए तो भृगु ब्राह्मण ने उनसे कहा--पुत्रो, साधुओं से दूर रहना । घे बच्चों को पकड़कर जंगल में ले जाते हैं और उन्हें मार डालते हैं। एक दिन जब ये खेलते हुए किसी वन में पहुंचे तो सामने से आते हुए कई साधु दिखाई दिये। वे भयभीत होकर एक वृक्ष पर चढ़ गये। वे साधु आकर उसी वृक्ष के नीचे ठहर गये और अपनी झोली में से पान निकाल कर भोजन करने लगे। उन साघुओं की गतिविधि को देखते-देखते उनको जातिस्मरण हो गया और वृक्ष पर से उतरकर उन दोनों ने साधुओं की वन्दना की और अपने घर आकर