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अ० ६ : महाचार-कथा
काय मन वच से न पृथ्वीकाय की हिंसा करे ।
त्रिविध करण व योगत्रिक-सयत समाहित संचरे ॥२६॥ भूमि-वध करता हुआ, करता तदाऽऽश्रित-वध सही ।
क्योंकि दृश्य-अदृश्य त्रस स्थावर विविध रहते वही ॥२७॥ कुगति-वर्धक दोष इसको जानकर मुनिवर श्रतः ।
उम्र-भरं आरंम्भ पृथ्वीकाय का छोडे स्वतः ||२८|| काय - मन-वच से नही अप्काय की हिंसा करे ।
त्रिविध करण व योगत्रिक-सयत, समाहित सचरे ॥ २६ ॥ सलिल - वध करता हुआ, करता तदाश्रित वध सही ।
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क्योकि दृश्य-अदृश्य त्रस स्थावर विविध रहते वही ॥३०॥ कुगति-वर्धक दोष इसको जानकर मुनिवर अत ।
उम्र भर आरम्भ मुनि अप्काय का छोडे स्वत ॥३१॥ जात - तेज. अग्नि सुलगाना श्रमण इच्छे नही । दुराश्रय सब ओर से है तीक्ष्ण शस्त्रो मे यही ||३२|| पूर्व-पश्चिम ऊर्ध्व - विदिशा - प्रघ दक्षिण मे रहे । और उत्तर दिशा मे स्थित प्राणियो को यह दहे ||३३|| भूत-घातक अग्नि है, इसमे नही सशय अरे ।
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ताप-उद्योतार्थं वद्य उसका न मुनि किंचित् करे ||३४|| कुगति-वर्धक दोष इसको जानकर मुनिवर अत
उम्र-भर आरम्भ तेजस्काय का छोड़े स्वत ||३५|| अनिल के आरम्भ को भी बुद्ध तादृश मानते ।
अत त्रायी वर्जते बहु- पापकारी जानते ||३६| तालवृन्त व पत्र, शाखा, विधूनन से भी नही ।
हवा करना-करांना मुनि चाहते कव ही नही ||३७|| वस्त्र, पात्र व पाद- प्रोछन, कम्बलादि महामना ।
यत्न से धारे कि जिससे हो न अनिल उदीरणा ॥ ३८ ॥ कुगति-वर्धक दोप इसको जानकर मुनिवर श्रतः ।
उम्र भर तक अनिल के प्रारम्भ को छोडे स्वत ॥३६|| काय - मन-वच से वनस्पति की नही हिंसा करे ।
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त्रिविध करण व योगंत्रिक-सयत समाहित सचरे ||४०||
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