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________________ अ० २६: सम्यक्त्व-पराक्रम १६७ त्तदनन्तर वह सिद्ध-बुद्ध फिर मुक्त यहाँ होता अत्यन्त । परिनिर्वाण प्राप्त करता सब दु.खो का करता है अन्त ॥६५॥ प्रतिरूपता-क्रिया का क्या फल ? इससे हलके मन को पाता। लघुता से अप्रमत्त, प्रकट लिंग हो प्रशस्त लिंग अपनाता ॥६६॥ विशुद्ध दर्शनवान पराक्रमपूर्ण, समिति वाला होता है। प्राणभूत फिर जीव सत्त्व गण का विश्वस्त रूप होता है ।।१७।। थोडी प्रतिलेखन वाला व जितेन्द्रिय, विपुल तपस्या वाला। होता है सर्वत्र समितियो का प्रयोग वह करने वाला ||९८॥ वैयावृत्य-क्रिया से भगवन् ! प्राणी किस फल को पाता? इससे वर तीर्थकर-नाम गोत्र का अर्जन हो जाता ॥६६॥ सव-गुण-सपन्नता" जीव को क्या फल देती है ? गुरुदेव । इससे जीव अपनुरावृत्ति कर लेता है स्वयमेव ॥१००।। जीव अपुनरावृत्ति प्राप्त करनेवाला, शारीरिक सर्व और मानसिक दुखो का भागी न कभी होता, गत-गर्व ॥१०१।। वीतरागता का क्या फल ? इससे शिष्य । स्नेह-अनुबन्ध । शीघ्र काट देता है प्राणी भीषण तृष्णा का भी फद ॥१०२॥ तथा मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्द रस रूप व गन्ध स्पर्ग। इन सबसे होता विरक्त, प्राणी पा जाता है उत्कर्ष ॥१०३॥ भगवन् क्षमा-भाव से जीव प्राप्त करता क्या लाभ विशाल? क्षमा-भाव से परीषहो पर विजय प्राप्त करता तत्काल ॥१०४॥ लोभ-मुक्ति" का क्या फल ? इससे प्राप्त अकिंचनता को होता। अर्थ लोल मनुजो द्वारा अप्रार्थनीय फिर है वह होता ।।१०।। भगवन् । प्राणी को आर्जव से फल क्या होता है सप्राप्त ? ___ आर्जव से काया भाषा व भाव की ऋजुता होती प्राप्त ॥१०६॥ और जोव वह आर्जव से अविसवादनता को पाता। अविसवादनता से प्राणी धर्माराधक हो जाता ॥१०७॥ मार्दवता से क्या सात्विक फल मिलता प्राणी को ? गुरुदेव । मार्दवता से जीव अनुद्धत वन जाता है वह स्वयमेव ।।१०८॥
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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