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________________ में० २३ : केशी-गौतमीय १३६. दुविशोध्य आदिम का कल्प, दुरनुपालक अन्तिम मुनिकल्प । ' और माध्यमिक मुनियों का सुविगोध्य सुपालक होता कल्प ॥२७॥ उत्तम प्रज्ञा तेरी गौतम | दूर किया यह मेरा सशय। । एक अपर संशय के बारे मे भी बतलायो करुणामय | ॥२८॥ वर्धमान उपदिष्ट धर्म की यहाँ अचेलक धर्म-व्यवस्था। ___ महायशस्वी पार्श्वनाथ की वर्ण-विशिष्ट सचेल व्यवस्था ॥२६॥ एक लक्ष्य के लिए चले हम तो फिर यह क्यो भेद महान । द्विधालिंग होने पर क्यो न तुम्हे सशय होता मतिमान | ॥३०॥ केशी के कहते-कहते ही गौतम ने यों कहा, तपोधन । जान विशिष्ट ज्ञान से धर्म-साधनो की दी अनुमति, भगवन ॥३१॥ लोक-प्रतीति हेतु की गई, विविध वस्त्रो की यहाँ कल्पना । “ यात्रा-हित, ग्रहणार्थ लोक मे, वेष-प्रयोजन है यह अपना ॥३२॥ मोक्ष-साधना की वास्तविक प्रतिज्ञा हो यदि तो निश्चय ही। निश्चय नय मे उसके साधन है चारित्र ज्ञान दर्शन ही ॥३३॥ उत्तम प्रज्ञा तेरी गौतम | दूर किया यह मेरा सशय । एक अपर संशय के बारे में भी बतलाओ करुणामय ! ॥३४॥ यहा सहस्रो शत्रुगणो के बीच खड़े हो तुम गौतम । , सम्मुख पाते तेरे, उन्हे पराजित कैसे किया ? नरोत्तम ! ॥३५॥ एक जीत लेने पर पांच गए जीते, पाँचो से फिर दर्श। दशो जीत कर मैं सव अरियो को कर लेता हूँ अपने वश ॥३६॥ केशी ने गौतम से कहा, कौन कहलाता शत्रु यहां पर । ।. ___केशी के कहते-कहते ही गौतम ने यो कहा वहाँ पर ॥३७॥ एक अजित आत्मा शत्रु है, कषाय इन्द्रिय गण भी दुश्मन । । । उन्हे जीतकर, धर्म नीति पूर्वक विहार कर रहा तपोधन ॥३८॥ उत्तम प्रज्ञा तेरी गौतम | दूर किया यह मेरा सशय । एक अपर सशय के बारे मे भी बतलाओ करुणामय । ॥३६॥ दीख रहे हैं बँधे हुए प्राणी इस जग मे बहुत अहो! ' : पाशं मुक्त, लघुभूत वायु ज्यो कैसे तुम संचरते हो ॥४०॥
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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