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________________ १३८ उत्तराध्ययन एक अचेलक अपर कीमती वस्त्र व वर्ण विशिष्ट व्यवस्था । ____ एक लक्ष्य से चले उभय मे फिर क्यों है यह भेद व्यवस्था ॥१३॥ निज-निज शिष्यो की वितर्कणा को केशी गौतम ने जाना। आपस मे मिलना है हमे उन्होने ऐसा दिल मे ठाना ॥१४॥ विनय धर्म की मर्यादा का लख औचित्य ज्येष्ठ कुल जान । शिष्य-सघ सह तिदुक वन मे आए गौतम श्रमण महान ॥१५॥ गौतम ऋषि को आए देख कुमार-श्रमण केशी ने उनका । सम्यक् प्रकार से उपयुक्त किया आदर गौतम के गण का ॥१६॥ प्रासुक पयाल और पाचवी कुश नामक दी घास तुरन्त । लिए बैठने को गौतम को केशी ने खुश हो अत्यन्त ॥१७॥ केशी कुमार-श्रमण व महायशस्वी गौतम श्रमण सुजान । दोनो बैठे हुए हो रहे है शोभित रवि-चंद्र समान ॥१८॥ कौतूहल खोजी फिर अन्य संप्रदायो के साधु अनेक । _ और हजारो गृहस्थ भी आए है वहाँ भीड़ को देख ॥१६॥ देव तथा गन्धर्व यक्ष राक्षस किन्नर दानव संघात । और अदृश्य रूप भूतों का वहाँ लगा मेला साक्षात ॥२०॥ महाभाग ! मैं प्रश्न पूछता कहा केशि ने गौतम से जब।। ___ केशी के कहते-कहते ही यो गौतम ने कहा शीघ्र तब ॥२१॥ जैसी इच्छा हो वैसे पूछो गौतम ने कहा भदन्त | अनुमति पाकर केशी ने फिर गौतम से यो कहा तुरन्त ॥२२॥ महामुनीश्वर पार्श्वनाथ ने चातुर्याम जो धर्म रहा। . __ और पंच-शिक्षात्मक यह जो वर्धमान का धर्म रहा ।।२३॥ एक लक्ष्य के लिये चले हम, फिर क्यो है यह भेद महान। द्विधा धर्म होने पर क्यो न तुम्हे सशय होता मतिमान | ॥२४॥ केशी के कहते-कहते ही गौतम ने यों कहा, समीक्षा-- - तत्त्व-निश्चयक धर्म-अर्थ की प्रज्ञा से होती सुपरीक्षा ।।२५।।। आद्य सरल-जड़ तथा वक्र जड़ अन्तिम जिनके होते संत । सरल-प्राज्ञ, होते माध्यमिक प्रत कि द्विधा है धर्म, भदन्त ॥२६॥
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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