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उग्र तपस्वी आशीविष ऋषि घोर पराक्रम व्रत अवदात | अशन समय ऋषि का वध, शिखि में ज्योकि शलभ-बलपापात ॥२७॥ जीवन-धन- इच्छुक हो यदि तुम तो सब मिल नत मस्तक बनकर । शरण ग्रहो वरना क्रोधित यह विश्व दहन कर सकता मुनिवर || २८ ॥
उत्तराध्ययन
पृष्ठ भाग की ओर झुके सिर, बाहु प्रसारित हैं निष्किय सब । फटे नेत्र मुख ऊर्ध्व, रुधिर बहता, जिह्वा आँखे निकली व ||२६|| काष्ठभूत लख छात्रो को, स्त्री सह सविषाद विप्र कहता यो । भगवन्, हीलादिक को क्षमा करे, प्रसन्न ऋषि को करता यो ॥ ३० ॥ मूढ अज्ञ शिशुओ ने जो हीला की उसे करें अब माफ ।
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महाप्रसन्न चित्त ऋषि होते हैं कोप न करते भगवन् ' आप ||३१|| मेरे मन मे द्वेष न था, न अभी है, होगा फिर न कभी ।
सेवा करते यक्ष अत ये हुए प्रताडित छात्र सभी ||३२|| अर्थ-धर्म ज्ञाता है भूति- प्रज्ञ हैं कोप न करते आप |
अतः आपके चरणो की ले रहे शरण सब मिल चुपचाप ||३३|| अर्चा करते है हम तेरी, तेरे सब कुछ अर्च्य यहाँ पर ।
महाभाग | नाना व्यंजन-युत अशन शालिमद् खाओ लेकर ||३४|| प्रचुर अन्न मे से कुछ खाओ अनुग्रहीत करने - हित इसको । हाँ भर ली मासिक तप का पारणा किया, ले प्रशन - सलिल को ||३५|| सलिल सुगधित, पुष्प, दिव्यधन की वर्षां देवो ने की फिर ।
होदान का घोष किया, दुन्दुभि बजाई नभस्थित होकर ||३६|| तप की महिमा दीख रही प्रत्यक्ष जाति वैशिष्ट्य न कुछ है ।
श्वपाक सुत हरिकेश भिक्षु की ऐसी महाऋद्धि सचमुच है ||३७|| शिखि आरम्भ व जल से बाह्य शुद्धि क्या मांग रहे हो सद्य ।
विप्रो । उसे न सम्यग्दर्शन कहते कुशल लोग अनवद्य ||३८|| दर्भ, यूप, तृण, काष्ठ, अग्नि, जल-स्पर्श सुवह -साय करते हो । प्राणभूत वधकर तुम मदबुद्धि अघ पुन - पुन. करते हो ॥३९॥
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यज्ञ करे कैसे प्रवृत्त हो ? जिससे नष्ट कर सकें पाप । यक्ष-पूज्य ! सयत ! बतलाए कुशल - सुइष्ट यज्ञ का माप ॥ ४० ॥