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सणतुकुमारचरिउ .
[६०२] जमिह अम्हहं नियय दुहियाहं विसयम्मि चिंताउरहं विहिय-विणय-पणमिर-सुरिंदिण । परिसाहिउ आसि सिरि- अच्चिमालि-नामिण मुणिदिण ॥ . जो अवहरिहइ दप्प-भरु जक्खह असियक्खस्सु । सो तुह धूयहं अहं वि हविहइ दइउ अवस्सु ॥
ता कुमारिण गरुय-विहवेण तत्थेव य तक्खणि वि अट्ट ताउ तरुयिण-सारिय । पसरंत-अणुराय-रस- सोहमाण परिणिय कुमारिय ॥ अह कय-नव-परिणीय-विहि विरइय-कंकण-बंधु । पविसइ रइ-मंदिरि कुमरु हुय-नव-बहु-संबंधु ।।
गुरु-परिस्सम-वसिण पुणु तस्सु अइरेण. वि रइ-भवणि धरणि-नाह-लीलई पसुत्तह । समुवागय निद्द बहु तयणु सयण-मुहियण-विउत्तह ॥ गोसि विहंगम-कुल-रविण पयडिय-पडिवोहस्सु । तं पुरु सु परियणु ताउ नव पिययम अ-नियंतस्सु ॥
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सिविणु किं एहु किं व मइ-मोहु किं व जायउं सच्चवउं इंदयालु किं व किण-वि दरिसिउ । जं पुव्व-सपुर-सयण- दइय-विरह-दुहिओ वि हरिसिउ ॥ आसि किंचि हउं अट्ठर्हि वि दइयहिं सह संबंधि । परि मह सिरि कुसुमिय-तरुहु डालि व भग्ग अ-संधि ।