________________
संगंतुकुमारचरिउ
[४५०] तुंगु पणमिरु विउसु सुकुलीणु सु-समत्थउ खति-यरु सीलबंतु सोहग्ग-मंदिरु । अहिगम्मउ दुद्धरिसु घण-समिद्ध दाणवु-संदिरु ॥ जय-जण-नयण-सुहावणउ गरुय-तेय-प-भारु ।' आससेण-अभिहाणु निवु आसि वसुंधर-सारु ॥
[४५१] तस्सु निरुवम-रूप-लायण्णगुण-रयण-रोहण-वसुह कुंद-कलिय-सम-दंत-पंतिय । कुवलय-दल-नयण-जुय वयण-विजिय-तामरस-कंतिय ॥ कलहंसिय-सारस-तरुणि- परहृय-महरालाच । सारय-रयणीयर-सरिस- पसरिय-कित्ति-कलाव ॥
[४५२] . - हरह गोरिव सिरि व मुर-रिउहु तारा इव ससहरह उव्वसि व तियसाहिरायह । दोवइ इव पंडवहं तह रइ व्य सिरि-दइय-जायह। सीया इव दसरह-सुयह गुरु-गुण-स्यण-समिद्ध । आसि हियय-पिय पिय-पवर सहदेवि त्ति पसिद्ध ॥
[४५३] तेसि धम्मि अविहिय-वाहाए भुजंतहं विसय-सुहु असम-राय-अणुरत्त-चित्तहं । उवगच्छइ कालु कु-
विपुत्र-भविय-सुकयह पवित्तहं ॥ अन्नम्मि उ अवसरि निसिहि सुह-सयणम्मि पसुत्त । सिविणंतरि सहएवि जय- जंतु-सुहय गुण-जुत्त ॥ ४५०. ६. क. सुहावण'.