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सनत्कुमारचरित
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धिक्कार छ आ विरस संसारने ! आवा राजवीनी आटला ज समयमां स्वजन अने मित्रोने उत्ताप करती आवी विषम दशा थई गई !' ए प्रमाणे विचारता अने झांखी पडेली मुखकांति वाळा बंने देवोने राजाए कह्यु, 'तमारं मुख विवर्ण थई गयेलं केम लागे छे ?' (७५२). एटले देवोए कह्यु, 'हे चक्रवर्ती, शुं तने नथी देखातुं के स्नान वेळा तारी जे भरपूर कान्ति हती ते अत्यारे नथी ?' एटले 'अरे, आ लोको शुं कहे छे ?' ए प्रमाणे एकाएक विचारमां पडी जईने राजाए पोताना शरीर • सामे जोयुं तो ते जाणे के मेशना रगडाथी खरडायेलं होय तेवू तेने देखायु. (७५३). ... ए पछी ते ज क्षणे ठखंड पृथ्वी, नव निधि, चौद रत्न, बत्रीश हजार मोडबंधा दोषमुक्त सामंतो, सोळ हजार आज्ञापालक यक्षो अने चोसठ हजार भक्तिनिष्ठ कुलीन सुंदरीओ ऊपरथी मन हठावी लईने (७५४), 'यौवन अस्थिर छे, धन स्वाधीन नथी, स्वजनो अने मित्रो स्वार्थमां रुचिवाळा छे, शरीर पण जळबिंदु समुं चंचळ छे-आ रीतना दुःखकारक भवगहनमां धीरपुरुष केम रममाण रही शके ?' एम उद्विग्न मने विचारतो सनत्कुमार संसार रूपी कांतारथी विरक्त थई चारित्र्य लेवानी इच्छावाळो आ प्रमाणे बोल्यो (७५५), 'अहो, अहो, हे भद्र ! रूपना मिथ्याभिमाने ग्रस्त एवा मने तमे लोकोए प्रयत्नपूर्वक भवमाथी उगार्यो-महासागरनी मध्यमां डूबता मने तमारा बंने हाथनो आधार दईने उगार्यो'. एटले चक्रवर्तीन मन जाणीने देवोए कह्यु, 'हे महायशस्वी तने खरेखर धन्य छे के मात्र आटलो ज़ दोष भाळीने तुं चक्रवर्तीपद छोडीने चारित्र्य लेवा उत्सुक बन्यो, कारण के हवे तारा शरीरमां औषधथी असाध्य एवा दुःसाध्य रोगोए प्रवेश कर्यो छे.' एटले चक्रवर्तीए पूछयु, 'आ वात तमे कई रीते जाणो ?' एटले देवोए पोतानुं स्वरूप प्रगट करीने इन्द्र. साथे बनेलो वृत्तांत कह्यो. (७५६-७५७).
. 'अरेरे, धिक्कार छे, धिक्कार छे. कर्मनुं परिणाम आखा जगत माटे के, दारुण छे ! नधी संपत्ति तद्दन तुच्छ छे. परिजनो चंचळ छे. मन अस्थिर छे. प्रियानो संग शरदना वादळ जेवो छे. वळी आ शरीर अनर्थकारक अने बधी अशुद्धिओनो भंडार छे. शरीरने शणगारवानी क्रिया अवुधोनी प्रवृत्ति छे. रूपर्नु अभिमान मिथ्या छे. (७५८). आनी प्रथम उत्पत्तिनुं कारण (?) होवा छतां जेनी विवेकीलोकोए निन्दा करी छे, जे उद्वेगनुं कारण छे, स्वभावथी ज जे निर्गुण छे अने अशुद्धिनां नव द्वारोने लीधे दुःखकारक छे, जे कपूर, अगरु, कस्तरी वगेरे बहु भोग-उपभोगनो विनाश करनारुं छे तेवू आ शरीर निःसंग लोको माटे दुःखद छे. (७५९). शुक्र, शोणित, रुधिर, वसा, मांस, मज्जा, परु, मूत्र, आंतरडां;