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________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज और अंतःपुरके झरोखेसे कभी कभी किसीकी छाया पाकर पड़ जाती । कभी कभी नूपुरोंकी झनकार भी कानों तक आ पहुँचती । इसी समय राजसभामें दक्षिण देशके एक दिग्विजयी कविका शुभागमन हुा । उसने आते ही शार्दूलविक्रीडित छन्दमें राजाका स्तव-गान किया। वह अपने मार्गके समस्त राजकवियोंको परास्त करता हुआ अन्तमें इस अमरापुरमें आकर उपस्थित हुआ था। राजाने बहुत ही आदरके साथ कहा-एहि एहि । कवि पुण्डरीकने दम्भके साथ कहा-युद्धं देहि । शेखर नहीं जानते थे कि काव्य-युद्ध कैसा होता है। परन्तु राजाकी बात तो टाली नहीं जा सकती-युद्ध किये बिना गुज़र नहीं। वे अन्यन्त चिन्तित और शंकित हो उठे, रातको नींद नहीं आई, उन्हें सब तरफ यशस्वी पुण्डरीकका दीर्घ बलिष्ठ शरीर, सुतीक्ष्ण वक्र-नासिका और दर्पोद्धत उन्नत मस्तक दिखाई देने लगा। __प्रातःकाल होते ही कम्पित-हृदय कविने रणक्षेत्रमें आकर प्रवेश किया। सभामण्डप लोगोंसे खचाखच भर गया, कलरवकी सीमा नहीं, नगरके सारे काम-काज बंद हो गये । ___ कवि शेखरका चेहरा उतरा हुआ था। उन्होंने बड़े कष्टसे प्रफुल्लताका आयोजन करके अपने प्रतिद्वंदी कवि पुण्डरीकको नमस्कार किया। पुण्डरीकने बड़ी लापरवाहीके साथ केवल इशारेसे नमस्कारका जवाब दिया और अपने अनुयायी भक्तवृन्दोंकी ओर देखकर हँस दिया । __शेखरने एक बार अन्तःपुरके झरोखोंकी ओर अपनी नजर दौड़ाई। देखा कि आज वहाँसे सैकड़ों कुतूहलपूर्ण काले नेत्रोंकी व्यय दृष्टियाँ इस जनतापर लगातार गिर रही हैं । उन्होंने अतिशय एकात्र
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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