________________
जय और पराजय
होकर अपने चित्तको उस ऊद्धर्व लोककी ओर फेंका जो अपनी जयलक्ष्मीकी वन्दना करके लौट आया और तब मन ही मन कहा, “हे देवि, हे अपराजिते, यदि आज मेरी जय हुई तो तुम्हारा नाम सार्थक हो जायगा।" ___ तुरही और भेरी बज उठीं । सारी सभा जय ध्वनि करके उठ खड़ी हुई । सफेद वस्त्र पहने हुए राजा उदयनारायणने शरत्कालके प्रभातकी शुभ मेघ-राशिके समान धीरे धीरे सभामण्डपमें प्रवेश किया। उनके सिंहासनपर बैठते ही पुण्डरीक सम्मुख आकर खड़े हो गये । सभामें सन्नाटा छा गया ;
विराट-मूर्ति पुण्डरीकने छाती फुलाकर और गर्दनको कुछ ऊपर उठा कर गम्भीर स्वरसे उदयनारायणका स्तव-पाठ करना शुरू किया । उनकी आवाज बहुत ही तेज थी । वह उस बड़े भारी सभा-मण्डपकी दीवारों, खम्भों, और छतोंपर समुद्र की तरंगों के समान गम्भीर गर्जनसे आघातप्रतिघात करने लगी और उसके वेगसे सारी जनताके वक्षकपाट थरथर काँपने लगे । उस रचनामें कितना कौशल, कितनी कारीगरी, उदयनारायणके नामकी कितनी तरहकी व्याख्याएँ, उनके नामके अक्षरोंका कितने प्रकारका विन्यास, कितने तरहके छन्द और कितने यमक तथा अनुप्रासोंकी भरमार थी, इसका वर्णन नहीं हो सकता।
पुण्डरीक जब अपना गान समाप्त करके बैठ गये, तब कुछ देरके लिए वह निस्तब्ध सभा-गृह उनके कण्ठकी प्रतिध्वनि और हजारों हृदयोंके निर्वाक विस्मयसे भर गया। दूर दूरले आये हुए पण्डितगण अपने अपने दाहिने हाथ उठाकर उच्छ्वसित स्वरसे 'साधु साधु' कहने लगे।
तब राजाने शेखरके मुंहकी ओर देखा। शेखर भी भक्ति, प्रणय, अभिमान और एक प्रकारको सकरण संकोचपूर्ण दृष्टि से राजाकी अोर देखकर धीरेसे उठ खड़े हुए। रामने जब लोक रंजनके लिए दूसरी बार