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________________ जय और पराजय ३ राजा साहब अपने कविके इस रसाधिक्यका परिचय पाकर बहुत ही खुश होते, और इस विषयको लेकर खूब हास परिहास करते । शेखरसे भी उसमें योग दिये बिना न रहा जाता । राजा हँसकर पूछते"भ्रमर क्या केवल वसन्तकी राज-सभामें गाया ही करता है ?" कविराज उत्तर देते, "नहीं, पुष्प-मञ्जरीका मधु भी चखा करता है।" इस तरह सभी हँसते और आनन्द लाभ करते। उधर अंतःपुरमें राजकन्या अपराजिता भी मञ्जरीके साथ छेड़छाड़ करती और उसकी दिल्लगी उड़ाती । परन्तु मञ्जरी भी उससे असन्तुष्ट न होती। मनुप्यका जीवन यों ही सत्यको मिथ्याके साथ मिलाकर किसी तरह कट जाता है। उसे कुछ विधाता गढ़ते हैं, कुछ मनुष्य पाप गढ़ लेता है और कुछ चार आदमी गढ़ देते हैं। गरज यह कि जीवन प्रकृत और अप्रकृत, काल्पनिक और वास्तविक आदि तरह तरहके मालमसालोंसे तैयार होता है। __ अवश्य ही कविराज जो गीत गाते वे सत्य और सम्पूर्ण होते । उनके विषय वही राधा और कृष्ण-वही चिरन्तन नर और चिरन्तन नारी ; वही अनादि दुःख और अनन्त सुख । उन्हीं गीतोंमें उनकी वास्तविक मर्म-कथा रहती, और उन्हींकी यथार्थता अमरापुरके राजाले लेकर दीन दुःखी प्रजा तक सभी अपने अपने हृदयमें जाँच करके देखते। उनके गाने सभीके मुंहपर चढ़े हुए थे। ज्यों ही चाँदनी खिलती और दक्षिणकी हवा बहने लगती, त्यों ही देशके चारों ओर न जाने कितने वनों, पथों, नौकाओं, झरोखों और आँगनों में उनके बनाये हुए गानोंका समा वध जाता। उनकी प्रसिद्धिकी कोई सीमा नहीं रही। इसी तरह बहुत समय बीत गया। कविराज कविता-रचना करते, राजा सुनते, राज-सभाके लोग 'वाह-वा' करते, मञ्जरी घाटपर आती
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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