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कविम्बहर नवाकर रवे परन्तु उसके स्वाद को तो वे पानी मान लोग ही चव मकते हैं जिनके कि पास पात्मजानाप धन हो। पगम्य वन माणकमपं विगोप्नमावद कटिः मकोपः । न गनी दशा चौर-तट माक्रियतां किलोगः ।।१६।।
प्रशं- मरों के गुरगम प धन को नष्ट करने के लिये ही जो मम तयार रहता है प्रोर दमों की बढ़वारी को देखकर कोपगन. होता है करता रना दम चोर के बच्चे दुर्जन को प्रगर काय करने वाला वग लगना, तो भी काव्यकर्ता को उससे डरना न। चार कि अपने मनको दृ बनाकर अपना कार्य करते
मना चाहिये। ग य महापग्णां कामवज्जन्मममम्नि केषां वनी, वाय: परवन्धनाय दगगयानांगणवत्मदा यः ।।१७।।
प्रथ-क्योंकि दुनिया में दो तरह के लोग सदा से हो है. Pा तो वे जिनक! कि जन्म कपाम की तरह का प्रौरों के गुहादेश ( प्रवगा प्रथया गृल प्रत । को ढके रखने का होता है। दूसरे व दृष्ट लोग होते है जो माग की तरह से अपनी चमड़ी तक को उचल कर भी उमम दूमों को बन्धा हुमा देखना चारते हैं। मरद गते यदी म गरी म बम्य गुगणेऽप्यतोषः । यनाथ नदि कम्य दोपः जीयाजगन्येष गुणेकपोषः ।।१८।।
प्रय-जिका ऐमा महज भाव होता है कि दूसरे के एक छोटे से गुरण को देखकर भी बड़ा खुश होता है उसका पादर करता