________________
६५
तो
कर्म को उदय में लाकर
प्रथं कर्मों का परिपाक भी दो तरह से होता है, एक समयानुसार कर्म प्राकर अपना फल देता है उसे तो उदय कहते हैं. दूसरा - कर्म को जबरन उदयमें लाकर उसका फल भोगा जाता है उसका नाम उदीरणा है। एवं बलात् तथा कर्मोदय के अनुसार अपने उपयोग को न बिगाड़ते हुये हैं। उस कर्म के फल को भोग डालना सो उदया भाव क्षय कहलाता है, ऐसा करने से धागे के लिये बन्ध बहुत कम होता है, उसमें फल देने की शक्ति उत्तरोत्तर कम होती रहती है एवं प्रन्तमें बिलकुल कर्मोका प्रभाग होकर यह जीव जन्म मरण से रहित हो जाता है जो कि इस प्रात्मा के प्रयत्न का फल है ।
योगं क्रमात् सम्विलयन्नथोप-योग पुननिर्मलयन्नकोपः । भवेदुहासीनगुणोऽयमत्र स एव यत्नः फलता पर || १८ ||
अर्थ:-संसार की भली और बुरी चीजों को मनी बुरी मान कर उनमें राग और द्वेष न करें, अपने विचार में मध्यस्थ होकर उदासीन बना रहे एवं अपने मन वचन श्रोर काय की चेष्टा को कमसे कम करते हुये तथा अपने उपयोग को भी निर्मल से निर्मल बनाते हुये उत्तरोत्तर कपायों से रहित होता चला जाये इमीका नाम प्रयत्न करना है, सो यही इस प्रात्मा को सफल बनाने वाला होता है।
सत्योदनेऽभ्येति च मुक्तये म निमित्तनैमित्तिक योग एपः । क्षुधातुरः किन्तु वती न याति तथैव देवाय नरतिज्ञातिः । १९ अर्थ - भात बनकर इधर तैयार हुवा कि खाने वाला उसे