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________________ तो दुगुना विष खाकर उसे जोरदार भी बना सकता है या मन्त्रित जलादि पी कर उसे जहर के बदले अमृतमय भी कर सकता है, इसी प्रकार कर्मों का भी हाल है, मान लो एक आदमी ने कुटिल परिणाम करके पाप बन्ध किया परन्तु अनन्तर ही परिणाम ठोक हो गये तो पश्चात्तापादि करके उसके असर को कम कर सकता है, और प्रगर उसो कुटिलता का समर्थन करता रहा तो उसे और भी जोरदार कर सकता है एवं प्रगर प्रायश्चित करके उसके ऊपर जम जाय तो उसे पुण्य के रूप में भी बदल सकता है। कम प्रसर कर देने का नाम प्रकर्षग, बढ़ा देने का नाम उत्कर्षण एवं प्रौर का मोर कर डालने का नाम संक्रमण है, जीव के बान्धे हुये सत्तागत कम में ये सब दशाय परिणामों के अनुमार होती रहती हैं जिससे कि कोका कभी तीव्र और कभी मन्द भी उदय होता है। यथोदयं विक्रियते च भावनेनाग्रतो बन्धमुपैति तावत् । एवं क्रमे मान्यमिते च कम-ण्यात्मा प्रयन्नन लमेन शर्म ।।१६।। अर्थ-इस प्रकार कर्मोके उदयका हिसाब है, उसमें जब कि कोका तीव्र उदय होता है तब तो नदी के वेग में पड़े हये को भांति विवश होकर प्रधोर होने से इस प्रात्मा से कुछ भी प्रयत्न अपने भले का नहीं हो पाता किन्तु जब मन्द उदय होता है उस समय प्रगर यह चाहे तो प्रयत्न कर सकता है और उससे पार होकर सुख का भागो बन सकता है। उदीय कर्मानुदयप्रणाशाचदग्रतोपन्धविधेः ममामात् । यथोचरं हीनतयानुभावाद जन्ममृत्योरयमीक्षिता वा ।।१७।।
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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