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बाह्य परिग्रह चरित्रमोह नाम से कहलाता है। यह परिग्रह भाव हो इस प्रात्मा के साथ लगा हुवा बड़ा भारी जोरदार है। अतो भवेन्नतनकर्मबन्धः यम्योदये मन्मधुनोऽयमन्धः । कगति दप्कम ततः कुयुद्धिमदेति यावन्न ममेति शुद्धिं ।१२
प्रथ-- उस उपयुक्त प्रहङ्कार और ममकाररूप परिग्रह परिणाम के द्वारा ही इस पात्मा के साथ प्रागे के लिये नवीन कर्मो का बन्ध होता रहता है और जब उन कर्मों का उदय होता है उस समय यह प्रात्मा विचार होन अन्धा बन जाता है जिससे कि अनेक तरह के कुकर्म करने के लिये उतारू होता है, और उससे इस की बुद्धि और भो दागे के लिये विकृत होती है, इस तरह से सन्तान दरसन्तान चली जाया करती है जब तक कि यह प्रात्मा पूर्णरीति से शुद्धि को प्राप्त नहीं कर लेता।
अचेतनं कर्म च जीयबद्धं फलप्रदानाय ममम्तु नद्धं । कथं न भुक्ताशनवद्विवेकिन्यतोऽयमंगी जगतीनलेऽकी ।।१३।।
प्रथ-हे बुद्धिमान ! यहां पर एक शङ्का जरूर हो सकती है कि यह जीव जिम कर्म को बांधता है, उपार्जन करता है वह तो स्वयं प्रचेतन है, जड़ है, वह अपने पाप इस जीव को अपना फल कैसे दे सकता है, परन्तु जगना विचार करने पर ही वह हल हो जाता है। देखो कि हम लोग जसा कुछ भोजन करते हैं उसका ठीक समय पर परिपाक होना शुरू होकर नियत काल तक उसका वैसा ही असर हम लोगों के लिये होता है, जैसी ताव मन्द या मध्यम जठराग्नि