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आनन्दघन का रहस्यवाद
जैनदर्शन के 'सत्' के अनुपम त्रिपदी-सिद्धान्त- 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' ('उप्पन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा') का विश्लेषण करते हुए आनन्दघन कहते हैं :
अवधू नटनागर की बाजी, जाणै न बांभण काजो। थिरता एक समय में ठाने, उपजै विनसै तबही । उलट पुलट ध्रुव सत्ता राखै, या हम सूनी नहीं कबही ॥ एक अनेक अनेक एक फुनि, कुंडल कनक सुभावै । जल तरंग घट माटो रविकर, अगनित ताइ समावै ।।' इस पद में आनन्दघन ने जैनदर्शन के तत्त्वज्ञान का सर्वस्व सार भर दिया है। स्याद्वाद, नय, सप्तभंगी, प्रमाण, त्रिपदी रहस्य आदि अनेक जैन सिद्धान्तों का एक ही पद में चित्रण कर उन्होंने दार्शनिक प्रतिभा का परिचय दिया है। वाक्-सिद्ध पुरुष . आनन्दघन केवल सन्त, कवि ही नहीं, वचन-सिद्ध पुरुष भी थे। उनके जीवन के सम्बन्ध में कई चमत्कारपूर्ण अनुभूतियां प्रसिद्ध हैं। उनमें तपोबल से ऐसी आत्म-शक्ति विकसित थी कि वे गिरि-गुफाओं, एकान्त स्थलों में, ध्यानस्थ हो शरीर और संसार का भान भूलकर आनन्द में लीन हो जाते । ध्यान और समाधि के फलस्वरूप उनमें अनेक लब्धियां (चमत्कार) प्रकट हुईं। यद्यपि आत्मस्थ सन्त आनन्दघन ने चिर साधना से संचित अमूल्य आध्यात्मिक शक्ति का उपयोग इन चमत्कारों को पाने हेतु नहीं किया था, फिर भी आध्यात्मिक पुरुषों के लिए ये सहज स्वाभाविक घटनाएँ होती हैं।
आनन्दधन की वचन-सिद्धि के सम्बन्ध में एक जनश्रुति है। यद्यपि जनश्रुतियों के बारे में निश्चित रूप से कुछ कह पाना कठिन होता है, तथापि 'नहूय मूला जनश्रुति :' के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जनसामान्य में प्रचलित अनुश्रुति निराधार नहीं होती। कहा जाता है कि एक बार जोधपुर की महारानी आनन्दघन के पास आयीं और उन्होंने राजा साहब के रुष्ट होने की बात बताकर साग्रह निवेदन किया कि वे
१. आनन्दधन ग्रन्थावली, पद ५९ ।