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आनन्दघन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व __ ५७ ऐसा कोई मन्त्र-तन्त्र बतलायें जिससे राजा साहब उनसे तुष्ट हो जायें। कुछ देर बिना प्रत्युत्तर दिए आनन्दघन बैठे रहे। दुबारा उसने कहा तब उन्होंने एक कागज पर यह लिखकर कि
'राजा रानी दोऊ मिले, उसमें आनन्दघन को क्या' रानी को दिया। रानी ने उसे ताबीज समझकर सोने के यन्त्र में रखकर गले में पहन लिया। संयोग से राजा उसपर तुष्ट हो गया। एक दिन किसी के कहने पर राजा ने रानी के गले का ताबीज तोड़कर उसमें जो महर्षि आनन्दघन ने लिखा था, पढ़ा और आश्चर्यचकित होकर उनकी निःस्पृह दशा और निःसंगता पर मुग्ध हो गया।
आनन्दघन के सम्बन्ध में इसी तरह 'बादशाह का बेटा खड़ा रहे', 'बादशाह का बेटा चलेगा', 'संकल्प के बल से पेशाब से स्वर्णसिद्धि', 'स्वर्ण निद्धि-नाचन', 'ज्वर को वस्त्र में उतारना', 'अक्षय-लब्धि' आदि की अनेक जनश्रुतियां हैं।
इससे प्रतीत होता है कि आनन्दघन पहुंचे हुए उच्चकोटि के वचन-सिद्ध योगी थे। इसलिए अनेक अलौकिक घटनाएँ उनके जीवन से जुड़ गई हैं।
समन्वयवादी एवं सर्वधर्मसहिष्णु __ आनन्दघन का व्यक्तित्व समन्वयवादी एवं सहिष्णु था। उनके काव्यों में धार्मिक उदारता एवं सहिष्णुता का परिचय मिलता है। जिस धर्म एवं दर्शन में व्यापक एवं उदार दृष्टिकोण का अभाव रहता है वह एकांगी, एकपक्षीय हो जाता है। इस सम्बन्ध में आनन्दघन का स्पष्ट उद्घोष है कि वीतराग-परमात्मा के चरणों का उपासक संकीर्ण, रागद्वेषवर्द्धक अनुदार एकान्तिक दृष्टि नहीं हो सकता। वह 'अपना सो सच्चा' इस सिद्धान्त के बदले 'सच्चा सो अपना' सिद्धान्त का पक्षपाती होगा। इसी उदार दृष्टि के कारण वह जहां-जहां सत्य मिले, बिना किसी संकोच के उसे अपना लेता है। उसकी अनेकान्त-दृष्टि स्पष्ट, उदार, सर्वांगी होती है । आनन्दघन ऐसे ही उदारमना सन्त थे । इसीलिए वे षड्दर्शनों को जिनेश्वर देव (समय-पुरुष) के छह अंगों के रूप में सुस्थापित करते हुए कहते हैं कि वीतराग-परमात्मा का चरण उपासक तो किसी एक दर्शन का नहीं, षड्दर्शन का आराधक होता है :