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आनन्दघन: व्यक्तित्व एवं कृतित्व
गई थी। दूसरी ओर गच्छ क्लेश और साम्प्रदायिक संकुचितता के दोष उभरते जा रहे थे । ऐसी स्थिति में आध्यात्मिक दृष्टि गम्पन्न आनन्दघन को व्यथित मन से कहना पड़ा :
गच्छना भेद बहु नयण निहालताँ, तत्त्वनी बात करताँ न लाजै । उदर भरणादि निज काज करताँ थकाँ, मोह नडिया कलिकाल राजै ।।
इसमें उन्होंने खुलकर गच्छवादियों की भर्त्सना की है । गच्छवादियों के की कलई खोलते हुए वे कहते हैं कि एक ओर तो वे तत्त्वज्ञानी साधक बनकर वीतरागता एवं अनेकान्तवाद का उपदेश देते हैं, और दूसरी ओर, दृष्टिराग से आबद्ध होकर गच्छ के मोह में जकड़े रहते हैं । ऐसे व्यक्तियों को तत्त्वज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें बघारते हुए तनिक लज्जा का अनुभव नहीं होता । आनन्दघन स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि ऐसे साधक आत्मज्ञानी या तत्त्वज्ञानी न होकर मात्र उदरपूर्ति, मान-प्रतिष्ठा आदि के चक्कर में ही पड़े रहते हैं । गच्छ - मत - पन्थ की थोथी महत्ता की डींग हांकनेवालों के मुंह से तत्त्वज्ञान की बातें शोभा नहीं देती । आज के साधकों की तो बात ही निराली है । इससे आनन्दघन के समय की तत्कालीन साधु समाज की स्थिति का सुन्दर परिचय प्राप्त होता है ।
वास्तव में आनन्दघन का यह उपदेश अनेकान्तवाद की समन्वय - शीलता का उद्घोष करनेवाले जैन समाज के लिए आज भी चेतावनी है । श्रेष्ठ दार्शनिक
आनन्दघन अध्यात्मयोगी एवं कवि होने के साथ-साथ दार्शनिक भी थे । उनकी काव्य-कृतियों का अध्ययन करने से उनकी प्रखर बौद्धिक प्रतिभा का परिचय मिलता है । अपने काव्यों में आपने धर्म एवं दर्शन
गूढ़ एवं जटिल सिद्धान्तों को जनसाधारण की भाषा में सरल एवं बोध ढंग से प्रस्तुत किया है । षड्दर्शनों के साथ जैनदर्शन का समन्वय स्याद्वाद का स्वरूप, नयवाद का स्वरूप, सत् का उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यात्मक स्वरूप तथा द्रव्य का गुण - पर्यायमय स्वरूप, विधि - निषेध द्वारा आत्म-स्वरूप की समझ आदि दार्शनिक तत्त्वों के विविध पहलुओं को, विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से सहज एवं सुबोध रूप में उजागर किया है ।
१. अनन्तजिन स्तवन, आनन्दघन ग्रन्थावली |