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आनन्दघन का रहस्यवाद
आनन्दघन के अनुसार आगम विरुद्ध कथन सबसे बड़ा पाप है। ४५ आगमों को 'सूत्र' कहा जाता है और इन सूत्रों के आधार पर ही पूर्वाचार्यों ने चूर्णी, भाष्य, सूत्र, नियुक्ति, वृत्ति आदि लिखी हैं। इसीलिए आनन्दघन कहते हैं
चूरणि भाष्य सूत्र नियुक्ति, वृत्ति परम्पर अनुभव रे।
समय पुरुषना अंग कह्या ए, जे छेदे ते दुरभवरे ॥' सिद्धान्त-पुरुष के इन छह अंगों में से किसी भी एक अंग का जो छेदन या उत्थापन करता है वह दुर्भवी है । इससे प्रतीत होता है कि उनके रोमरोम में जैनागमों के प्रति निष्ठा भरी थी। उनके सम्बन्ध में श्रीमद्रराजचन्द्र ने भो लिखा है-"श्री आनन्दघन जी नो सिद्धान्त बोध तीव्र हतो अने तेओ श्वेताम्बर सम्प्रदायना हता”।२
उन्होंने अपने पदों एवं स्तवनों में अनेक स्थान पर आगमों का उल्लेख किया है। उदाहरणस्वरूप सुविधिजिनस्तवन में प्रतिपत्ति' पूजा के लिए उत्तराध्ययन सूत्र का प्रमाण देते हुए वे लिखते हैं :
तुरिय भेद पडिवत्ती पूजा, उपसम खीण सयोगी रे ।
चउदह पूजा उत्तराझयणे; भाखी केवल भोगी रे ॥ इस प्रकार, कहा जा सकता है कि आनन्दधन ने जैन-आगमों की गहराइयों को विशिष्ट शास्त्रीय एवं सरल भाषा में जन-जन तक पहुंचाने का प्रयास किया है।
सम्प्रदायातीत
आनन्दघन गच्छातीत ही नहीं, सम्प्रदायातीत भी थे। वे किसी भी गच्छ-मत या पन्थ की संकुचित वाड़ाबन्दी के घेरे में आबद्ध होकर रहना नहीं चाहते थे। तत्कालीन धार्मिक स्थिति अच्छी नहीं थी। वैसे, जैन संघ में अनेक दिग्गज विद्वान् मुनि थे, किन्तु अध्यात्म ज्ञान की ओर से साधुओं का लक्ष्य न्यून हो गया था और आचार में भी शिथिलता आ
१. नमिजिन स्तवन, आनन्दघन ग्रन्थावली । २. श्री आनन्दघन-पद-संग्रह, पृ० १४ । ३. सुविधिजिनस्तवन, आनन्दघन ग्रन्थावली ।