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आनन्दघन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
उन्होंने इस ऋषभ परमात्मा को प्रियतम का रूपक देकर प्रेम का रहस्योद्घाटन किया है। यद्यपि जैन-परम्परा में परमात्मा को प्रियतम मानकर उपासना करने की पद्धति नहीं रही है, तथापि आनन्दवन ने अपनी रचनाओं में वैष्णव भक्तिमार्गी पद्धति अपनायी है। इससे उनपर कबीर, मीरा, रैदास आदि भक्त कवियों का प्रभाव परिलक्षित होता है ।
यद्यपि उनकी दृष्टि में प्रेम का अर्थ हृदय को साधारण-सी भावुक स्थिति न होकर आत्मानुभवजन्य प्रभु-प्रेम है। वे स्वयं इस प्रभु-प्रेम की अनिर्वचनीयता के बारे में बड़े ही मार्मिक शब्दों में कहते हैं :
कहा दिखावु और कुं, कहा समझावु भोर । तीर न चूकै प्रेम का, लागै सो रहै ठोर ॥ नाद विलूधो प्रान कुं, गिनै न त्रिण मृगलोइ।
आनन्दघन प्रभु-प्रेम की, अकथ कहानी कोइ ॥' आनन्धन का यह प्रेम इन्द्रियजन्य न होकर आत्मा-परमात्मा का प्रेम है। इसका सम्बन्ध ज्ञान से न होकर हृदय से है । वह अनुभवजन्य है। इसलिए कहा जा सकता है कि आत्मा-परमात्मा का प्रेम ही आनन्दधन का रहस्यवाद है। उनका पद 'देखन में छोटे लगत घाव करे गंभीर' की उक्ति को चरितार्थ करता है।
आगमों के प्रखर ज्ञाता
आनन्दघन को जैन आगमों का तलस्पर्शी ज्ञान था। उनके काव्य में द्रव्यानुयोग, करणानुयोग, गणितानुयोग और कथानुयोग का तात्त्विक विवेचन दृष्टिगत होता है। विशेषरूप से उन्होंने द्रव्यानुयोग पर अधिक बल दिया है । ये द्रव्यानुयोग के महागीतार्थ थे। इनका 'अवधूनट नागर की बाजी' वाला पद द्रव्यानुयोग का उत्कृष्टतम उदाहरण है। इतना ही नहीं, आगमों के प्रति भी उनकी अत्यधिक श्रद्धा थी । वे लिखते हैंपाप नहीं कोइ उत्सूत्र भाषण जिस्यो, धर्म नहीं कोइ जग सूत्र सरीखो। सूत्र अनुसार जे भाविक किरिया करै, तेह नो शुद्ध चारित्र परिखो ॥२ १. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ५४ । २. अनन्तजिनस्तवन, आनन्दघन ग्रन्थावली ।