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________________ ३२६ आनन्दघन का रहस्यवाद लम्बे नेत्र और उन नेत्रों को सुन्दर बनाने के लिए अंजन की भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि उसके अपने हृदय में ही निरंजन परमात्मरूप पति विराजित हैं। अन्तःकरण में सुशोभित निरंजन परमात्मा के कारण अब उसके समस्त पाप और भय दूर भाग गए हैं। उसका यह परमात्मरूप साजन साधारण नहीं है । वह कामधेनु और अमृत-कुंभ है। इतना ही नहीं, आनन्दमय परमात्मा उसके हृदय रूपी वन के केसरी सिंह हैं जो काम रूपी मदोन्मत्त हाथी का नाश करने वाले हैं अब मेरे पति गति देव निरंजन । भटकू कहां कहां सिर पटकू, कहां करूं जन रंजन ॥१॥ खंजन दृग दग नांहि लगावं, चाहुं न चित वित अंजन । संजन घट अन्तर परमातम, सकल दूरित भय भंजन ॥२॥ एहि काम-गवि, एहि काम घट, एहि सुधारस मंजन । आनन्दघन घटवन केहरि, काम मतंगज गंजन ॥३॥' इस प्रकार, जब चेतन-चेतना का मिलन हो जाता है, तब समस्त द्वैत भाव तिरोहित हो जाते हैं । पूर्णता की स्थिति आ जाती है । दोनों में कोई अन्तर ही नहीं रह जाता और उसकी चिरकालीन विरह-व्यथा समाप्त हो जाती है । द्वैत भाव केवल विरहावस्था तक प्रतिभासित होता है किन्तु जैसे ही मिलन की अवस्था आती है, द्वैत भाव मिट जाता है और साधक आत्मानुभव-रस का पान करने लगता है । प्रात्म-समर्पण की अवस्था रहस्यवाद की अवस्थाओं के सन्दर्भ में आगमन की अवस्था भी उल्लेखनीय है, क्योंकि आनन्दघन ने 'आत्म-अर्पण' की बात कही है। अतः इस प्रश्न पर किंचित् गहराई से विचार कर लेना अपेक्षित है। ___ सबसे पहले हमें यह स्पष्ट करना होगा कि आत्मार्पण' या 'आत्मसमर्पण' से आनन्दघन का क्या तात्पर्य है ? जैन-परम्परा में आत्म-अर्पण या आत्म-समर्पण का अर्थ है-आत्मा को पर भाव से हटाकर स्वभाव-मा की ओर ले जाना या 'स्व' में केन्द्रित होना। यह बहिर्मुखता का त्याग कर १. आनन्दधन ग्रन्थावली, पद ८ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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