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________________ ३२० आनन्दघन का रहस्यवाद मिलन का शुभ मनोरथ तभी पूर्ण हो सकता है जब कि कर्म और कर्मबन्धन के कारणों पर विजय पाई जाय । * शुभ-अशुभ भावों से हटकर शुद्ध नबो- या स्व-स्वरूप में प्रवृत्त होना या लीन होना ही परमात्म-मिलन का सत्पथ है। इसी तथ्य को आगे और अधिक स्पष्ट शब्दों में व्यक्त करते हुए आनन्दघन ने कहा है जुंजन करणे अन्तर तुझ पड्यो, गुण करणे करि भंग । ग्रंथ उक्ति करि पंडित जन कह्यो, अन्तर भंग सुअंग ॥' हे नाथ ! कर्मों के योग (सम्बन्ध) से ही आपमें और मुझमें अन्तर पड़ा हुआ है। किन्तु इस अन्तर को गुणकरण (सद्गुणों की साधना) की प्रक्रिया के द्वारा दूर किया जा सकता है। जैन-ग्रन्थों में सहज प्रक्रिया तीन करणों में विभाजित है-(१) युन्जनकरण, (२) गुणकरण, और (३) ज्ञानकरण । ये तीनों करण जैन पारिभाषिक शब्द हैं। इनकी विशेष चर्चा योग-दृष्टि समुच्चय, योग-बिन्दु, योग-शास्त्र, योगद्वात्रिंशिका आदि योग-विषयक ग्रन्थों में है। तीसरे ज्ञानकरण का समावेश गुणकरण में होने से आनन्दघन ने यहाँ दो करणों का ही निर्देश किया है। आत्मा की कर्मों के साथ जुड़ने (संयोग) की प्रक्रिया को युजनकरण कहते हैं और जिसमें आत्मा अपने वास्तविक गुणों-ज्ञान, दर्शन और चारित्र में रत या स्थिर होकर क्रिया करती है, उस क्रिया को गुणकरण कहते हैं। दूसरे शब्दों में, गुंजनकरण की क्रिया आस्रव रूप है और गुणकरण की क्रिया संवर रूप है । मुनि ज्ञानसार ने भी ज्ञानकरण और गुणकरण के सम्बन्ध में कहा है : ज्ञानकरण गुणकरण दो, ए सुभाव सम्बद्ध । गुण करणे समवाय फल, अचल अकल रिद्धि सिद्ध ॥२ वस्तुतः परमात्मा के साथ आत्मा के मिलन में बाधक कारण युजनकरण की क्रिया है। इसीके कारण आत्मा का परमात्मा से मिलन नहीं हो पा रहा है। इससे स्पष्ट है कि आनन्दघन ने मुख्य रूप से आत्मा १. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद्मप्रभजिन स्तवन । २. वही, ५।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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