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________________ आनन्दघन का भावात्मक रहस्यवाद ३२१ परमात्म-मिलन में विघ्नावस्था के रूप में युंजनकरण की प्रक्रिया को माना है। जब गुणकरण की प्रक्रिया के द्वारा युंजनकरण का नाश होगा तव आत्मा और परमात्मा के बीच का कर्म रूप पर्दा हट जाएगा, अन्तर दूर हो जाएगा और अनाहत नाव रूपी मांगलिक वाद्ययन्त्र बज उठेगे। जीव रूपी यह सरोवर आनन्द रस से परिपूर्ण होकर अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त होगा । आत्मा परमात्मा बन जाएगी।' मिलन की अवस्था ___ रहस्यवादी साधक को यह बोध हो जाता है कि उसका प्रिय से वियोग अष्ट कर्मों के बन्धन अथवा माया-ममता के कारण है। राग-द्वेष, कामक्रोध, लोभ-मोह, माया-ममता, आशा-तृष्णा आदि समस्त मनोविकार कर्मबन्धन के कारण हैं और ये मनोविकार ही परमात्म-मिलन में बाधक हैं। फिर भी रहस्यवादी साधक का यह दृढ़ विश्वास रहता है कि कर्म-बन्धन टूटने पर परमात्मा रूप प्रिय से भेंट होगी, मिलन होगा। जब आत्मा पूर्णतया शुद्ध हो जाएगी, कर्मों से रहित हो जाएगी तभी प्रिय से मिलन सम्भव है। वस्तुतः संयोग और वियोग ये दोनों एक प्रकार की भाव-दशाएँ हैं। जिस प्रकार विरह के लौकिक और आध्यात्मिक दो रूप हैं, उसी प्रकार मिलन के दो रूप हैं-एक लौकिक और दूसरा आध्यात्मिक । यह स्पष्ट है कि लौकिक मिलन वासनामय होता है। उसमें मन विषय-वासना से सना हुआ होता है, जब कि आध्यात्मिक-मिलन शरीर द्वारा नहीं होता, क्योंकि यह मिलन परमात्मा (शुद्धात्मा) से होता है। परमात्मा से मिलन शरीर और इन्द्रियों द्वारा तो हो ही नहीं सकता। काम और भोग का सम्बन्ध शरीर और इन्द्रियों तक सीमित है । आध्यात्मिक मिलन में विषयवासना निःशेष हो जाती है। यह मिलन उच्च मानसिक धरातल पर होता है। मैत्रायण्युपनिपत् में मन के दो स्तर वर्णित हैं-एक शुद्ध मन १. तुझ मुझ अन्तर अन्ते भाजसे, वाजस्यै मंगल तूर । जीव सरोवर अतिशय वाधिस्यै, आनन्दघन रस पूर। -आनन्दधन ग्रन्थावली, पद्मप्रभजिन स्तवन, ६ । २१
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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