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आनन्दघन का भावात्मक रहस्यवाद
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उपर्युक्त कठिनाइयों के साथ ही सबसे बड़ा विघ्न आत्म-गुणों का घात करने वाली घाती कर्मरूपी पर्वत परमात्म-दर्शन में रोड़े अटकाते हैं। ये प्राती-गर्वन एक नहीं, अनेक हैं। परमात्न-दर्शन के लिए इन घाती कर्म रूपी पर्वतों को हटाना आवश्यक ही नहीं, नितान्त अनिवार्य है। अनेक घाती कर्म रूपी पर्वतों में भी मोहनीय कर्म सबसे बड़ा पर्वत है। यदि इस एक पर्वत को चूर-चूर कर दिया जाए तो शेष पर्वत स्वतः चकनाचूर हो जाते हैं। चन्द्रप्रभजिन स्तवन में आनन्दघन ने स्पष्ट रूप से कहा है कि परमात्मा के मुख-चन्द्र के दर्शन में बाधक मोहनीय कर्म है। परमात्मा (शुद्धात्मा) की सतत प्रेरणा से साधक क्रमशः कर्म रूपी पर्वतों को पार कर बारहवें क्षीण मोह गुणस्थान नामक शिखर पर पहुंच जाता है, जहाँ
समस्त कर्म रूपी आवरण क्षीण हो जाते हैं । सभी मनोरथ पूर्ण करने वाले . कल्पवृक्ष स्वरूप आनन्दघन परमात्मा को पा लेते हैं।'
मोहनीय कर्म का क्षय होने पर परमात्मा के मुख रूपी चन्द्रमा के दर्शन हो जाते हैं।
यद्यपि द्रव्य-दृष्टि से आत्मा और परमात्मा में ऐक्य है, समानता है, तथापि वर्तमान में आत्मा और परमात्मा के बीच में एक अन्तराल है। अतः यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि आत्मा और परमात्मा के बीच इस अन्तराल का कारण क्या है ? इसका समाधान आनन्दघन ने पद्मप्रभ जिन स्तवन में किया है। आत्मा और परमात्मा के मध्य जो अन्तर है उसका एक मात्र कारण है 'कर्म' ।२ कर्मों के प्रगाढ़ आवरण के कारण ही आत्मा परमात्मा के दर्शन से वंचित है। कर्म रूपी आवरण का विच्छेद होने पर जीवात्मा और परमात्मा की यह दूरी समाप्त हो जाती है, आत्मा का परमात्मा से मिलन हो जाता है। जब तक आत्मा कर्मों से सम्पृक्त है, तब तक आत्मा और परमात्मा के बीच दूरी बनी रहेगी। अतः परमात्म१. प्रेरक अवसर जिनवरू सखी, मोहनीय क्षय थाय । सखी ।
कामित पूरण सुरतरू सखी, आनन्दघन प्रभु पाय ॥ सखी० ॥
आनन्दघन ग्रन्थावली, चन्द्रप्रभजिन स्तवन । २. पद्मप्रभ जिन तुझ मुझ आंतरू, किम भांजे भगवंत । कर्मविपाके कारण जोइन, कोई कहै मतिवन्त ।।
-आनन्दघन ग्रन्थावली, पद्मप्रभजिन स्तवन ।