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आनन्दघन का रहस्यवाद
एक अन्य पद में भी अनुभव ने इसी तरह उसे प्रिय के घर आने का पूर्ण आश्वासन दिया है
आतुरता नहीं चातुरी रे, सुनि समता टुक बात ।
आनन्दघन प्रभू आइ मिलेंगे, आज घरे हर भांत ॥' समता की विरह-व्यथा को सुनकर अनुभव कहता है कि इस तरह आतुरता रखने में बुद्धिमानी या चातुर्य नहीं है। जल्दबाजी से काम नहीं बनता। मैं कहता हूँ कि आनन्दधन प्रभु आज तेरे घर आकर अवश्य मिलेंगे । यहाँ आनन्दघन ने दोनों पदों में 'टुक' शब्द का प्रयोग कर आशा को नवपल्लवित किया है। इससे समता के हृदय में प्रिय-मिलन का आभास होता है। न केवल अनुभव अपितु मित्र विवेक भी समता की अथाह विरह-व्यथा को सुनकर उसे प्रिय के आने का आश्वासन देता है कि आनन्दघन प्रभु तेरे यहाँ आएँगे और आकर स्वभाव रूप सेज पर आनन्द रूप रंगरेलियां करेंगे
मीत विवेक कहै हितूं, समता सुनि बोला। आनन्दघन प्रभू आवसी, सेजडी रंग रोला ॥
अनुभव और विवेक के अतिरिक्त उसकी प्रिय सखी श्रद्धा भी उसे प्रिय आगमन के लिए आश्वस्त करती हुई कहती है कि हे स्वामिनी! इतना अधिक खेद तुम मत करो। शनैः-शनैः प्रियतम प्रभु तुम्हारे पास आएंगे और तब आनन्द समूह रूप प्रभु का प्रेम तुमसे बढ़ जाएगा
कहै सरधा सुनि सामिनी, एतो न कीजै खेद ।
हेरइ हेरइ प्रभु आवही, बढ़े आनन्दघन मेद ॥३ अनुभव, विवेक और श्रद्धा इन तीनों के द्वारा आश्वासन देने पर स्वयं समता-विरहिणी को भी प्रियतम के आने की आशा बंध जाती है । निराशा में भी उसे अब आशा-किरण दिखाई दे रही है। उसे विश्वास हो गया कि विभाव दशारूपी रात्रि के विलीन होते ही स्वभाव दशा रूपी सूर्य प्रकट
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ३० । २. वही, पद ३१ । ३. वही, पद ३५ ।