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________________ आनन्दघन का भावात्मक रहस्यवाद होगा । और तब आनन्द रूपी प्रिय आकर मानों समता से वास्तविक रूप में मिल जाएगा।' उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट विदित होता है कि आनन्दघन की अन्तरात्मचेतना आशावादी है। इसका सर्वोत्तम उदाहरण अजितजिन स्तवन है। उनकी अन्तरात्म-चेतना परमात्म-पथ के दर्शन के लिए अत्यधिक उत्सुक है, किन्तु इस समय उसे उसकी उपलब्धि नहीं हो रही है, फिर भी वह आशा के सहारे जीवित है-इसका स्पष्ट दिग्दर्शन निम्नांकित पंक्तियों में किया है काल लब्धि लही पंथ निहालस्यूँ , ए आशा अवलम्ब । ए जन जीवे जिनजी जाणज्य, आनन्दघन मत अंब ॥२ आनन्दधन की अन्तरात्म-चेतना परमात्म के दर्शन के लिए काललब्धि (विरह का काल पूरा होने) की प्रतीक्षा करती है और उसके जीने का श्रेष्ठ आधार यही है। चूंकि परमात्मपथ के दर्शन के लिए स्वभाव रमण रूप पुरुषार्थ द्वारा आत्म-शक्ति प्राप्त होने तक प्रतीक्षा करना आवश्यक है। इसी को दृष्टि पथ में रखकर वह कहती है कि हे प्रभु ! समय परिपक्व होते ही (काललब्धि) मैं अवश्य तुम्हारे दर्शन करूँगी, इसी आशा-प्रतीक्षा का अवलम्बन लेकर मैं जी रही हूँ। वस्तुतः मेरी आत्मा तो उस दिन के लिए उत्सुक है, जिस दिन मुझे तुम्हारे दर्शन होंगे। उसी दिन मेरी यह आत्म-साधना सफल होगी। जैनधर्म में प्रत्येक कार्य को सफलता के लिए पाँच समवायी कारण माने गये हैं । वे हैं-काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरुषार्थ । आत्मविकास के लिए भी इन्हों का महत्त्व है। आनन्दघन ने प्रस्तुत पद में 'काल' (काल-लब्धि) समवायी कारण का निर्देश किया है क्योंकि समय का परिपाक होने पर ही अमुक कार्य होता है। जैसे फसल अमुक समय पर ही पकती है। बीज बोते ही किसान को फल नहीं मिल जाता, उसे प्रतीक्षा करनी पड़ती है, धैर्य के साथ फसल पकने तक इन्तजारी करनी पड़ती है और अडिग विश्वास रखकर सक्रिय रहना पड़ता है, तभी उसे १. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ३४ । २. आनन्दघन ग्रन्थावली, अजितजिन स्तवन ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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