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आनन्दघन का भावात्मक रहस्यवाद
३०९ भी आसन्न लगती है। इसीलिए आनन्दघन रूप समता विरहिणी के प्राण प्रियतम के बिना इसी स्थान पर निकल रहे हैं
सूनि अनुभव प्रीतम बिना, प्रान जात इहि ठांहि ।' आगे वह और अधिक स्पष्ट शब्दों में कहती है कि करोड़ों उपाय क्यों न किए जायें, किन्तु अब मैं आनन्दघन रूप प्रिय के बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकती :
आनन्दघन बिन प्रान न रहे छिन, कोरि जतन जो कीजे । यद्यपि दर्शन की आशा उन्हें रोक लेती है, किन्तु विलम्बजनित निराशा भी अपना गहरा रंग जमा लेती है और आनन्दघन रूप समता-विरहिणी प्रिय का आगमन न होने पर निराश होकर कह उठती है कि इस तरह से जिस घर में विरहिणी का पति बाहर चला गया हो, वह स्त्री तो हमेशा ही उदास रहेगी
इह बिधि छे जे घर धणीरे, उसयूँ रहे उदास । निराशा में प्राशा को किरण
घोर से घोर निराशा में भी आशा की किरण उसे दिखाई देती है। इसीलिए वह कहती है कि आनन्दघन प्रभु समता रूप निज घर में आकर हर प्रकार से उसकी गुण स्थान-आरोहण रूप आशा को पूर्ण करेंगे
हर विधि आइ पूरी करै, आनन्दधन प्रभु आस || क्योंकि आशा अमर है और उस आशा-किरण के सहारे ही अब तक उसने अपने प्राण टिकाए रखे हैं। अनुभव अत्यधिक आशावादी है। वह विरहिणी समता को धैर्य बँधाते हुए हर समय आश्वस्त करता रहता है। वास्तव में अनुभव रूपी भाई का आशावाद ही उसे आनन्द देता है और उसके अतिरिक्त कोई चारा भी नहीं है। वह समता की विरह-वर्णित-दशा को सुनकर उसके मनोनुकूल बात करता है और कहता है कि हे समता ! अब तनिक धैर्य धारण करो। आनन्दघन प्रिय स्वयं तेरे यहाँ आ रहे हैं
अनुभव बात बनाइकै, कहै जैसी भावै हो ।
समता टुक धीरज धरो, आनन्दघन आवै हो ।। १. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ३३ २. वही, पद २४ । ३. वही, पद २७ । ४. वही, पद २७ । ५. वही, पद ३२।