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________________ आनन्दघन का रहस्यवाद अन्य सब पदार्थं तो भले ही भले हैं। केवल आनन्दघन रूप नाथ ही मेरे सिरमोर हैं । इसी तरह मिलन की उत्सुकता निम्नांकित पद में भी दृष्टिगत होती है— ३०४ तुम्ह भावै सो कीजै वीर, मोहि आन मिलावो ललित धीर' । समता विरहिणी अपने भाई विवेक से कहती है कि तुम्हें जो भी उचित करो, किन्तु येन-केन प्रकारेण मुझे अपने प्रियतम से मिला दो । जब तक प्रिय मिलन नहीं होता है, तब तक प्रियतम की प्रतीक्षा में विरहिणी का मार्ग की ओर ही ध्यान लगा रहता है । जो पथिक आते हुए दिखाई पड़ते हैं, उनसे प्रियतम के आगमन का सन्देश पूछती रहती है कि प्रियतम मुझसे कब आकर मिलेंगे | आनन्दघन रूप समता विरहिणी भी अपने भाई विवेक से सर्वप्रथम प्रियतम की कुशलता के समाचार पूछती है प्रान जीवन आधार कुं, खेम कुशल कहो बात | 2 तदनन्तर उससे प्रिय आगमन के समाचार पूछती है कि हे भाई विवेक ! तुम यह सच सच बताओ कि प्रिय स्वामी यहां कब आएंगे अथवा नहीं आएंगे ? सलूने साहिब आवैंगे, मेरे वीर विवेक कहौ न सांच रे । जब आनन्दघन की समता - विरहिणी प्रिय मिलन के लिए अत्यधिक विह्वल और आतुर हो जाती है, धैर्य टूटने लगता है तब वह प्रिय-मिलन सम्बन्धी बात ज्योतिषी से पूछने के लिए बाध्य हो जाती है, क्योंकि अब तक वह सभी से अपनी विरह व्यथा कह कह कर थक गई । किन्तु प्रिय से मिलन नहीं हुआ । अतः विशिष्ट ज्ञानी गुरु जन रूप ज्योतिषज्ञ से वह अपने प्रिय-मिलन को बात पूछती है । प्रिय-मिलन के लिए अति व्याकुल विरहिणी समता द्वारा ज्योतिषज्ञ से पूछे गए प्रश्न का बड़ा ही सजीव एवं स्वाभाविक चित्रण निम्नांकित पंक्तियों में हुआ है । राशि राशि तारा कला, जोसी जोइ न जोस । रमता समता कब मिले, भागै विरहा सोस ॥ १. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ६८ । २. वही, पद ३७ । ३. वही, पद ३८ । ४. वही, पद २७ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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