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________________ आनन्दघन का भावात्मक रहस्यवाद मिलन की उत्कण्ठा दर्शन की अभिलाषा के सदृश ही मिलन की अभिलाषा भी बड़ी ही मार्मिक होती है । आनन्दघन रूप समता विरहिणी ने अपनी मिलन की अभिलाषा की तीव्रता भी स्पष्ट पदावली में प्रस्तुत की है । उसकी मिलनोत्कण्ठा निम्नांकित पद में चित्रित हुई है— ३०३ १. २. मौने मिलावो रे कोई कंचन वरणो नाह । अंजन रेख न आंखड़ी भावै, मंजन सिर पड़ो दाह ॥ ' समता -प्रिया कहती है कि अरे, कोई स्वर्ण वर्ण वाले नाथ से मुझे मिला दो अर्थात् शुद्धात्मा-रूप प्रिय से मेरी भेंट करा दो। प्रिय-मिलन के अभाव में विरह के कारण आँखों में काजल की रेखा भी नहीं सुहाती है और स्नान करने पर तो ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे सिर पर आग लगो हो । मिलन की अभिलाषा एक अन्य पद में भी बड़े ही प्रभावोत्पादक ढंग से अभिव्यक्त हुई है— कोड । मिलवानो मिलवानो कोड || मौने माहरा माधविया नै, मौने माहरा नाहलिया नै हूँ राखुं मांडी कोई बीजो मोने विलगो झोड ॥ १ ॥ मोहनियां नालिया पाखै माहरे, जग सवि उजड जोड । मीठा बोला मन गमता नाहज विण, तन मन थाऔ चोड ॥ २ ॥ कई ढौलियौ खाट छेडी तलाई, भावे न रेसम सौड । अवर सबै माहरे भला भलेरा, माहरे आनन्दघन सिरमोड || ३ || २ आनन्दघन रूप समना प्रिया को प्रिय मिलन की 'उत्कट अभिलाषा' है । इसीलिए वह स्पष्ट शब्दों में कहती है कि मुझे अपने 'चेतन रूप स्वामी से मिलने का बड़ा चाव है' (कोड) । शुद्धात्म- प्रिय के अतिरिक्त अन्य सब बातें मुझे झंझट भरी लगती हैं । मनमोहन नाथ के मेरे समीप न होने से सारा संसार विजन -तुल्य या सुनसान-सा लगता है । इतना ही नहीं, मिष्ठभाषी मनभावन चेतन रूप नाथ के बिना मेरे तन-मन में पीड़ा हो रही है । साथ ही पलंग, खाट, पछेवड़ी (ओढ़ने के वस्त्र), गद्दी, तकिया, रेशम की रजाई आदि उपभोग की कोई भो चीज अच्छी नहीं लगती । मेरे लिए आनन्दघन ग्रन्थावली, पद २२ । वही, पद २३ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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