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प्रथम अध्याय
रहस्यवाद : एक परिचय
भूमिका
वस्तुतः रहस्यवाद अर्वाचीन सम्प्रत्यय है, किन्तु रहस्य - भावना भारतीय वाङ्मय में प्राचीनकाल से विद्यमान है । रहस्य - भावना का आशय आध्यात्मिक परमतत्त्व की प्राप्ति है । हत्या में साधक की उत्कट जिज्ञासा का विशेष महत्त्व है, क्योंकि यहाँ साध्य सदैव रहस्यमय रहता है । जिज्ञासावृत्ति ही साधक को रहस्यमय साध्य तक पहुँचाती है । इसी कारण भारतीय रहस्यवादी चिन्तकों ने परमतत्त्व के प्रति जिज्ञासा और उत्सुकता का साधक में जागरित होना अनिवार्य माना है ।
वास्तव में, अज्ञात तत्त्व के प्रति जिज्ञासा मानव की चिन्तनशीलता एवं बौद्धिकता का परिणाम है । भारतीय ऋषि महपियों द्वारा व्यक्त और दृश्य देह-जगत् के भीतर अव्यक्त, अदृश्य और अरूपी आत्मतत्त्व को खोजने का प्रयास चिरन्तन काल से होता रहा है । साधनाओं और भावनाओं द्वारा अपने घट में ही विराजमान ' आत्मदेव' के साथ तादात्म्य स्थापित किया गया है । ये आध्यात्मिक अनुभव जब शब्दों में अभिव्यक्त होते हैं, तब उन्हें रहस्य - भावना, रहस्य-विचार अथवा रहस्य -साधना कहा जाता है । इसे आज 'रहस्यवाद' के नाम से अभिहित किया गया है । " मूलतः अपनी अन्तःस्फुरित अपरोक्ष अनुभूतियों द्वारा सत्य, परमतत्त्व अथवा ईश्वर का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने की प्रवृत्ति ही रहस्यवाद है ।" "
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रहस्यवाद शब्द रहस्य + वाद इन दो शब्दों के मेल से बना है । रहस्य = परमतत्त्व और वाद = विचार । इस प्रकार रहस्यवाद का अर्थ है परमतत्त्व विषयक विचार। आध्यात्मिक दृष्टि से रहस्यवाद का मूलार्थ हैपरमतत्त्व सम्बन्धी वह विचार या भावना जिसमें अन्तः ज्ञान (इन्ट्युशन ) पर आधारित अपरोक्षानुभूति का तत्त्व सन्निहित हो । रहस्य - भावना के बीज तो वेद-उपनिषद् आदि प्राचीनतम साहित्य में समाहित थे, किन्तु आगे
१. साहित्य कोश, पृ० ६२५ ।