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परक अर्थ में २५२, (स) श्रद्धापरक अर्थ में २५.३, सम्यग्दर्शन का लक्षण एवं स्वरूप २५३, सम्यक् ज्ञान २५६, सम्यक् चारित्र २५८, भक्ति योग की साधना : जैन भक्ति का स्वरूप २६०, योग साधना २६२, योग साधनापरक शब्दावली २६२, योग का स्वरूप २६३, योग के विविध भेद २६३, हठयोग २६३, लययोग २६४, राजयोग २६५, यम और नियम २६५, आसन २६६, प्राणायाम २६६, प्रत्याहार २६६, धारणा २६७, ध्यान २६७, समाधि २६८, मन्त्रयोग २६८, जैन योग २६९, अवंचक त्रय योग साधना २६९ । षष्ठ अध्याय :
२७१-३३५. आनन्दधन का भावात्मक रहस्यवाद
भावात्मक रहस्यवाद में अनुभूति का महत्त्व २७१, रहस्यवाद की अवस्थाएँ २७५, प्रेम और विरह का सम्बन्ध २७८, अनन्य प्रेम २७८, विरह का स्वरूप २८४, विरह के द्वारा वेदना की तीव्रता २८५, विरह के अश्रुपात २८८, दर्शन की उत्कण्ठा २९९, मिलन की उत्कण्ठा ३०३, मिलन की प्रतीक्षा ३०५, निराशा में आशा की किरण ३०९, विघ्न की अवस्था ३१३, माया ३१४, ममता. ३१७, परमात्म दर्शन में बाधक घाती कर्म-पर्वत ३१८, मिलन की अवस्था ३२१, आत्म-समर्पण की अवस्था ३२६, तादात्म्य अथवा आत्मोपलब्धि की अवस्था ३३१ । सहायक ग्रन्थ-सूची:
३३६-३५२