________________
[ छ ]
भक्तिपरक पद ८९, शृङ्गार एवं विरह-मिलन सम्बन्धी पद ९०, आध्यात्मिक पद ९१, दार्शनिक पद ९२, योग साधनापरक पद ९३, उपदेशात्मक पद ९४ । .तृतीय अध्यायः
६५-१६५ आनन्दधन की विवेचन-पद्धति
प्रतीकात्मकता ९८, अमूर्त तत्त्वों का मानवीयकरण १०२, रूपकात्मक पद्धति १११, रहस्यात्मकता १२०, अनेकांत-दृष्टि १२८, निश्चय और व्यवहारमूलक नय-पद्धति ११२, समन्वयात्मक दृष्टि १४७, अपरोक्षानुभूति १५८ । चतुर्थ अध्याय :
१६६१२५० आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार
आत्मज्ञान की जिज्ञासा १६६, आत्मा का स्वरूप १७०, आत्मा १७१, आत्मा का लक्षण १७२, कर्तृत्व १७८, भोक्तृत्व १७९, निषेधात्मक रूप से आत्मा के स्वरूप पर विचार १८१, आत्मा का अनिर्वचनीय स्वरूप १८२, नित्यवाद और अनित्यवाद १८४, नित्यः आत्मवाद १८५, अनित्य आत्मवाद, आत्मा की विभिन्न अवस्थाएँ १९३, आत्मा की स्वाभाविक एवं वैभाविक अवस्थाएँ १९४, बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा २०१, जैनेतर परम्परा में आत्मा की अवस्थाओं का चित्रण २०३, निद्रा, स्वप्न, जाग्रत और तुरीय २१६, बन्धन (दुःख) और उसका कारण २२०, प्रकृतिबन्ध २२७, स्थितिबन्ध २२९, अनुभागबन्ध २२९, प्रदेशबन्ध २२९, कर्म की अवस्थाएँ २२९, बन्ध २२९, उदय २३०, उदीरणा २३०, सत्ता २३०, बन्धन का कारण २३०, आत्मा का साध्य-मुक्ति, आनन्द २३५, मुक्ति के उपाय २४९ । पंचम अध्याय :
२५१-२७० आनन्दघन का साधनात्मक रहस्यवाद
रत्नत्रय की साधना २५१, सम्यग्दर्शन २५२, सम्यग्दर्शन के विविध रूप २५२, (अ) दृष्टिपरक अर्थ में २५२, (ब) तत्त्व श्रद्धा