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आनन्दघन का सावनात्मक रहस्यवाद
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साधक आशा तृष्णा का परित्याग कर मन में दृढ़ स्थिरता रूप आसन जमाकर अजपाजाप अर्थात् ध्वनि रहित जाप करता है, वह आनन्द रूप ज्ञानदर्शनमय निरंजन (परमात्मपद) को प्राप्त कर लेता है । इस अजपाजाप की साधना में आनन्दघन ने आसन को भी महत्त्वपूर्ण माना है, क्योंकि आसन से काया के योग पर अंकुश रहता है ।
जैन- योग
सन्त आनन्दघन में उपर्युक्त यौगिक साधना के अतिरिक्त जैन-योग की साधना भी पाई जाती है । उन्होंने जैन योग के अनुरूप योग साधना की दृष्टि से परमात्म-सेवा के लिए सर्वप्रथम पूर्व भूमिका के रूप में अभय, अद्वेष और अखेद - इन तीन गुणों की साधना साधक में होना अनिवार्य बताई है। इस सम्बन्ध में उनका कथन है :
संभव देव धुरे सेवो सवेरे, अभय अद्वेष अखेद ।'
वस्तुतः जैनयोग में योग का प्रारम्भ सेवा से माना गया है, क्योंकि सेवा से लेकर समता तक जो धार्मिक अनुष्ठान साधक करते हैं, वे धर्मव्यापार होने के कारण योग के उपाय मात्र हैं । २
श्रवंचक त्रय-योग-साधना
जैनदर्शन में तीन योग बताए गए हैं - योगाऽवंचक, क्रियावंचक और फलावंचक । ये तीनों योग जैन-योग की पारिभाषिक शब्दावली में प्रयुक्त हुए हैं । इन तीनों योगों को विस्तृत विवेचना जैनाचार्य हरिभद्रसूरि ने योग-दृष्टि-समुच्चय में की है । सन्त आनन्दघन ने भी उक्त अवंचक त्रययोग का उल्लेख किया है । निम्नांकित पंक्तियों में तीन प्रकार की योग प्रक्रिया का निर्देश करते हुए वे कहते हैं :
निरमल साधु भगति लही सखी, जोग अवंचक होय | किरिया अवंचक तिम सही, सखी, फल अवंचक जोय ॥ ३
पवित्र साधुओं की भक्ति से साधक को योगाऽवंचक की प्राप्ति होती है अर्थात् कुटिलता रहित योग की प्राप्ति होती है । इस अवंचक योग की
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, संभव जिन स्तवन ।
२. योगभेद द्वात्रिंशिका, ३१ ।
३. आनन्दघन ग्रन्थावली, चन्द्रप्रभ जिन स्तवन ।