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आनन्दघन का रहस्यवाद
क्रियाएँ (कार्य) भी उसी प्रकार अयंत्रक-अमोघ अचूक होती है और इसका फल भी निश्चय अवंचक होता है। दूसरे शब्दों में, आत्म स्वरूप को प्राप्त सद्गुरु के योग से कुटिलता रहित योग की प्राप्ति होती है । योग-अवंचकता के प्राप्त होने पर क्रिया अवंचकता तया फल अवंचकता की सिद्धि होती है।
सारांशतः यह कहा जा सकता है कि आनन्दधन की योग-साधना में हमें रहस्यवाद की अन्तर्मुखी प्रक्रिया मिलती है। वस्तुतः आनन्दघन सर्वश्रेष्ठ साधनात्मक रहस्यवादो थे। योग जैसे जटिल विषय का उन्हें सूक्ष्मातिसूक्ष्म ज्ञान था।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि आनन्दघन के साधनात्मक रहस्यवाद में रत्नत्रय, भक्ति और योग का सुन्दर समन्वय हुआ है। इन सभी साधनामार्गों का अवलम्बन लेकर वे अपने परम लक्ष्य की ओर आगे बढ़े हैं।