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आनन्दघन कानावनात्मक रहस्यवाद
जो साधक आशाओं को मारकर अपने अन्तः में अजपाजाप को जगाते हैं, वे चेतन मूर्ति निरंजन का साक्षात्कार करते हैं। इस अजपा की अनहद ध्वनि उत्पन्न होने पर आनन्द के मेघ की झड़ी लग जाती है और जीवात्मा सौभाग्यवती नारी के सदश भावविभोर हो उठती है। अनहदनाद की चर्चा अन्यत्र भी आनन्दधन ने की है। नाद लय-योग का अपना एक रूप और हमें आनन्दघन में मिलता है। वह है उनका शब्द सुरति-योग । इस योग का वर्णन सामान्यतः योगशास्त्र के ग्रन्थों में नहीं मिलता। आचार्य कुन्दकुन्द के मोक्षपाहुड़ में २ 'सुरद' (सुरत) शब्द का प्रत्यय अवश्य उपलब्ध होता है किन्तु इसके बीज सिद्धों में ढूढ़े जा सकते हैं। आनन्दघन ने भी कतिपय पदों में 'सुरति' या 'सुरत' शब्द का प्रयोग किया है । राजयोग
लययोग के बाद राजयोग आता है। हठयोग और लययोग राजयोग की प्राथमिक भूमिकाएं ही कही जा सकती हैं। राजयोग वस्तुतः हठयोग के पश्चात् की साधना है। हठयोग में शारीरिक साधना पर बल दिया जाता है। इसके विपरीत राजयोग का सम्बन्ध मन से माना जाता है। राजयोग को अष्टांग योग भी कहते हैं। अष्टांग योग की चर्चा आनन्दघन ने भी की है। इस सम्बन्ध में उनका निम्नांकित पद द्रष्टव्य है :
यम नियम आसण जयकारी,प्राणायाम अभ्यासी।
प्रत्याहार धारणा धारी, ध्यान समाधि समासी ॥४ यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये अष्टांग-योग कहे गये हैं। यम और नियम
यम का अर्थ है-इन्द्रियों का निग्रह करना और नियम का अर्थ हैमहाव्रतों का पालन करना।
१. आनन्दधन ग्रन्थावली, पद ७५ । २. मोक्षपाहुड़, गाथा ८३-८४ । ३. जोगी सुरति समाधि मैं, मानो ध्यान झकोला।
-आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ३१ । एवं सुरत सिंदूर मांग रंगराती, निरत बेनी सभारी ।
-आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ८६ । ४. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ७५ ।