________________
२६४
आनन्दधन का रहस्यवाद
में पहुंच जाती है तब साधक को समाधि की स्थिति प्राप्त हो जाती है। इस समाधि अवस्था को प्राप्त करने के पश्चात् योगी अमर हो जाता है। ___ यद्यपि जैन-साधना में हठयोग को नहीं माना गया है, किन्तु सन्त आनन्दघन में इसके प्रारम्भिक तत्त्व पाए जाते हैं। किन्तु उनकी रचनाओं में हठयोग का बीभत्स रूप दृष्टिगोचर नहीं होता है। हठयोग की प्रारंभिक प्रक्रिया का उल्लेख करते हुए आनन्दघन का कथन है :
म्हारो बालूडो संन्यासी, देह देवल मठवासी । इडा पिंगला मारग तजि जोगी, सुखमना घरि आसी।
ब्रह्मरन्ध्र मधि आसण पूरी बाबू, अनहद नाद बजासी ॥' मेरा अल्पवयस्क संन्यासी शरीररूपी मन्दिर में निवास करता है और वह चन्द्रनाड़ी (इड़ा) तथा सूर्यनाड़ी (पिंगला) का परित्याग कर सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करता है। तदनन्तर योगी अपना आसन स्थिर कर सुषुम्ना नाड़ी द्वारा प्राणवायु को ब्रह्मरन्ध्र में ले जाकर अनहदनाद बजाता हुआ चित्तवृत्ति को उसमें लीन कर देता है। लययोग __ आत्मा को परमात्मा में लय कर देना ही 'लययोग' कहलाता है। इसके अनेक भेद हैं। यथा-नाद-लय-योग, शब्द-सुरति-योग, सहज लययोग । आनन्दघन में नादलय-योग से सम्बद्ध रहस्याभिव्यक्ति पाई जाती है। अनहदनाद की चर्चा उन्होंने अनेक स्थलों पर की है। अहनदनाद श्रवण नाद लय की पराकाष्ठा है। अनहदनाद से तात्पर्य है, जिसके द्वारा साधक अपनी आत्मा के गूढ़तम अंश में प्रवेश करता है, जहां पर अपने आपकी पहचान के सहारे वह सभी स्थितियों को पार कर अन्त में कारणातीत हो जाता है । जब अनहदनाद सुनाई पड़ता है तभी साधक को परमतत्त्व के दर्शन होते हैं। योग से प्रभावित होने के कारण आनन्दघन भी अनहदनाद के रूप में उसकी अनुभूति करते थे। इसका संकेत करते हुए उन्होंने कहा है :
उपजी धुनि अजपा की अनहद जीत, नगारे वारी ।
झड़ी सदा आनन्दघन बरखत, बन मोर एकन तारी ॥२ १. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ७५ । २. वही, पद ८६॥