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आनन्दघन का रहस्यवाद
उत्तराध्ययन सूत्र में भी सिद्धात्मा के ३१ गुणों का विवेचन है । यहां यह भी उल्लेख करना आवश्यक प्रतीत होता है कि सन्त आनन्दघन ने कुन्दकुन्दाचार्य की भांति बन्ध और मोक्ष को पर्याय अवस्थाओं का विषय माना है' । वस्तुतः व्यवहार नय या पर्याय - दृष्टि से ही बन्ध और मोक्ष की विचारणा की जाती है । इस सम्बन्ध में उनका यह पद द्रष्टव्य है :
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निश्चय नय की दृष्टि से न तो आत्मा का बन्धन है और न मोक्ष । अतः बन्ध और मोक्ष दोनों व्यवहार सत्य है । स्व-स्वरूप की दृष्टि से तो आत्मा मात्र नित्य, अबाधित और आनन्दरूप है । इसी भाव की पुनरावृत्ति आनन्दघन ‘चौबीसी’ में ज्ञानसार कृत तेइसवें पार्श्वजिन स्तवन में भी हुई है । इसी प्रकार का विचार मुनि ज्ञानसार ने भी व्यक्त किया है :
बंध मौख निह नहीं, विवहारी लखि दोइ । कुशल खेम अनादि ही, नित्य अबाधित होइ ॥
बन्ध मोख नहीं हमरे, कबही, नहिं उत्पात बिनासा । सिद्ध सरूपी हम सब काले, ज्ञानसार पदवासा ॥ ३ श्रीमद्राजचन्द्र ने भी प्रकारान्तर से इसी बात को पुष्ट किया है।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर निष्कर्षरूप में यह कहा जा सकता है कि आनन्दघन के अनुसार 'परमानन्द या मुक्ति' – सर्व कर्मों के क्षय से
१.
२.
सुन्दर सरूपी सुभग सिरोमणी, सुणि मुक्त आतम राम । आनन्दघन पद पाम ॥
तन्मय तल्लय तसु भजन करी,
आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ३७, तुलनीय - वंधन मोख नहीं निश्वये, विवहारे भज दोय रे ।
अखण्ड अनादि न विचल कदा, नित्य अबाधित सोय रे । - पार्श्वजिनस्तवन, आनन्दवन ग्रन्थावली | ३. आनन्दघन ग्रन्थावली, मुनि ज्ञानसार उद्धृत, पृ० २० ।
४. छूटे देहा ध्यासतो, नहि कर्ता तुं कर्म ।
- आनन्दघन ग्रन्थावली, पद १३ ।
नहिं भोक्ता तुं तेहनो, एज धर्म नो मर्म । एज धर्म थी मोक्ष छे, तुं छे मोक्ष स्वरूप | अनंत दर्शन ज्ञान तुं, अव्याबाध स्वरूप ॥ - आत्म-सिद्धि, पद ११५-११६ ।