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आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार
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मुक्त आत्मा या सिद्धात्मा लोक और अलोक का जहां संधि स्थल है वहां निवास करता है । वहां केवल ज्ञान का ही प्रकाश है । सिद्धात्मा जन्म, जरा और मृत्यु से घिरे हुए संसार का त्याग कर उस स्थान पर पहुंच जाता है जिस स्थान पर अनन्त सुखरूप समुद्र लहरा रहा है। यहां द्रष्टव्य यह है कि लोक और अलोक ये जैनदर्शन के पारिभाषिक शब्द हैं। जैनदर्शन के अनुसार लोक वह है जहां पंचास्तिकाय हो अर्थात् धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय हो तथा अलोक वह है जहां केवल आकाश हो । प्रस्तुत पद में आनन्दघन
मुक्तात्माओं के स्थान का संक्षेप में बहुत ही सुन्दर ढंग से चित्रण किया है । यहां यह बताना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि वस्तुतः मोक्ष या मुक्ति कोई स्थान विशेष नहीं होकर आत्मा की अवस्था विशेष ही है । यद्यपि व्यवहार दृष्टि से लोकाकाश और अलोकाकाश के बीच का स्थान सिद्धों का आवास होने से 'सिद्धशिला' कहा जाता है । आनन्दघन ने सिद्ध-स्वरूप का वर्णन अन्यत्र भी किया है । वे कहते हैं कि सिद्ध परमात्मा अनन्त गुणों से युक्त हैं, अरूपी हैं, अविगत हैं, शाश्वत् हैं, समग्र पदार्थों एवं भावों के ज्ञाता है। साथ ही, सहज सुख में रमण करने वाले, गम्भीर, अविनाशी और अविकार हैं । जिन्होंने ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नौ, वेदनीय दो, मोहनीय दो – दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीय, आयुष्य चार, नाम कर्म दो, गोत्र दो तथा अन्तराय कर्म की पांच उत्तर प्रकृतियां - इस तरह उक्त आठ कर्मों की ३१ उत्तरप्रकृतियों को क्षय कर ३१ गुणों को प्राप्त किया है।' वैसे आगमों में सिद्ध परमात्मा के अन्य भी अनेक गुण बताए गए हैं, किन्तु यहां उनके प्रमुख ३१ गुणों की ही चर्चा की गई है ।
१. अनन्त अरूपी अविगत सासतो हो, वासतो वस्तु विचार । सहज विलासी हासी नवि करै, अविनासी अविकार ॥ ज्ञानावरणी पंच प्रकार नी, दरसण रा नव भेद । वेदनी मोहनी दोइ दोइ जाणीइ रे, आउखो चार विछेद ॥ शुभ अशुभ दोउ नाउं बखाणीयै, ऊंच नीच दोय गोत । विधन पंचक निवारी आप थी, पंचम गति पति होत || जुगपद भावी गुण जगदीसनां रे, एकत्रीस मति आणि । अवर अनंता परमागम थकी, अविरोधी गुण जाणि ॥