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आनन्दघन का रहस्यवाद उन्होंने कहा है कि साधक मुक्ति और संसार को भी समान समझे अर्थात समता को पराकाष्ठा पर पहुंचे हुए आत्मार्थी की दृष्टि से मुक्ति निवास और संसार निवास दोनों बराबर हैं । इस प्रकार, साधक समत्व भाव को संसार समुद्र तैरने के लिए नौका समझे।
उपाध्याय यशोविजय ने भी मुक्ति का एक मात्र उपाय समता ही बताया है। ऐसा ही विचार मुनि ज्ञानसार और श्रीमद् राजचन्द्र ने भी व्यक्त किया है। ___ आनन्दघन के अनुसार भी आत्मा का साध्य समता (समत्व भाव) कहें तो अनुचित नहीं होगा। किन्तु आनन्दघन की कृतियों का गहराई से अध्ययन करने पर प्रतीत होता है कि उनके अनुसार आत्मा का साध्य आनन्द की उपलब्धि है। वस्तुतः नैश्चयिक दृष्टि से समता और आनन्द में कोई मौलिक भेद नहीं है। व्यवहार नय से एक ही आत्मा की ये दो अवस्थाएँ हैं। आत्मा की पहली अवस्था समता है जिसे आनन्दघन ने समता, सुमति या शुद्धचेतना कहा है और दूसरी आनन्द । समता आती है तो विक्षोभ, तनाव और आकांक्षाएं समाप्त होती हैं तथा आनन्द प्रतिफलित होता है। इस दृष्टि से समता और आनन्द को आत्मा का साध्य मानने में कोई बाधा नहीं आती। समत्व की स्थिति में ही आनन्द-दशा
१. अध्यात्मसार, अधिकार ९। २. जो कोऊ निंदा करै, करै प्रशंसा कोय ।
असमी सम विसमै लखै, समी गणै सम होय । समी खुसी, नहिं वेखुसी, असमी दोनों जोय । यात समवृत्ति सधै, कर्मबंध लघु होय । दुःख को सुख कर लेत है, जो समदृष्टि साध । असमी कू सुख दुःख, असम समी सदा निरबाध ॥
-मुनि ज्ञानसार। ३. शत्रु भित्र प्रत्येवर्ते समदर्शिता,
माने अमाने वर्ते तेज स्वभाव जो। जीवित के मरणे नही न्यूनाधिकता,
भव-मोक्षे पण शुद्धवर्ते समभाव जो ॥ -श्रीमद् राजचन्द्र ।