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आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार २४३ का अनुभव हो सकता है। जब व्यक्ति समदर्शी या समभावी होगा, राग-द्वेष रहित होगा, तभी वह अव्यावाध आनन्दानुभूति का आस्वादन कर सकेगा। आनन्दघन ने अनेक पदों में समता को आत्मा की शुद्ध चेतना और आनन्द (आनन्दघन) को शुद्ध चेतन के रूप में चित्रित किया है। उन्होंने आनन्द (आनन्दघन) और समता को पति-पत्नी का रूपक देकर इस रहस्य को समझाने का प्रयास किया है। आनन्दघन के शब्दों में:
पूछोइ आली खबरि नई, आए विवेक वधाई। महानन्द सुख की वरनिका, तुम्ह आवत हम गात ।
प्राने जीवन आधार कू.खेम कुशल कहो बात ।।' यहां श्रद्धासखी समता से विवेक को प्राण जीवन ऐसे आनन्दरूप चेतन-पति को कुशलता के समाचार पूछने के लिए कहती है। ___ आनन्दघन के अनुसार जब साधक समता की पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है तब उसे अनन्त आनन्द की अनुभूति अपने आप होने लगती है। इतना ही नहीं, प्रत्युत उस स्थिति में समता और आनन्द में कोई द्वैत नहीं रह जाता। समता और आनन्द की इस अद्वैत-दशा का मनोरम चित्रण देखिए :
प्रेम जहाँ दुविधा नहीं रे, नहि ठकुराइत रेज । . आनन्दघन प्रभु आइ विराजै, आप ही समता सेज ॥२
जहाँ विशुद्ध प्रेम होता है वहाँ द्विधा भाव नहीं रहता और न छोटेबड़े का कोई भेदभाव तथा गर्व रहता है। इसी तरह जब आत्मा समता की पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है तब उस स्थिति में आनन्द-पुंज रूप परमात्मा या शुद्धात्मा स्वयं ही समता की सेज पर आकर विराजमान हो जाते हैं। इस समता और अनन्त आनन्द की अद्वत-दशा को ही मुक्ति कहते हैं। इस अवस्था में आत्मा स्व-स्वरूप में स्थिर रहता है, उसमें किसी भी प्रकार राग-द्वेषादि विभाव नहीं रहते हैं। यह आनन्दानुभूति की दशा आत्मपूर्णता की दशा है। जैसा कि आनन्दधन ने कहा है :
आतम अनुभव रस भरी, यामे और न मावे।
आनन्दधन अविचल कला, विरला कोई पावे ॥ १. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ३७ । २. वही, पद ३६ । ३. वही, पद २।