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________________ आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार २४१ इसिभासियाई', अनुयोगद्वारसूत्र', मोक्ष-प्राभृत, नियमसार', एवं भगवद्गीता' आदि ग्रन्थों में है। समता की साधना के लिए आनन्दघन की ये पंक्तियाँ मननीय हैं : मान अपमान चित्त सम गिणे, सम गिणे कनक पाषाण रे । वंदक निंदक सम गिणे, इस्यो होय सुं जाण रे।। सर्व जग जन्तु ने सम गिणे, सम गिणे तृण मणि भाव रे। मुक्ति संसार बैठ सम गिणे, मुणे भवजल निधि नाव रे ।। साधक सत्कार-सम्मान और अपमान-तिरस्कार, निंदा और स्तुति दोनों ही अवस्थाओं में सम रहे। इसी तरह स्वर्ण और पाषाण तथा तृण और मणि दोनों को पुद्गल की दृष्टि से समान समझे। इसी प्रकार सभी जीवों को आत्मवत समझ कर उनके प्रति समभाव रखे। इससे भी आगे १. सव्वत्थेसु समं चरे। -इसिभासियाइ, १८ २. जो समो सव्वभूएसु तसेसु थावरेसु अ। तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलि भासि ॥ -अनुयोगद्वारसूत्र, १२८ । ३. जिंदाए य पंससाए दुक्खे य सुहएसु य । सत्तू ण चैव बंधूणं चरित्त समभावदो ॥ __-मोप्रान्त. ७२ । ४. नियमसार, १२६ । गीता में कहा है-समत्वं योग उच्यते आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमोमतः ॥ जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः । शीतोष्ण सुख-दुःखेषु तथा मानापमानयोः ।। ज्ञान-विज्ञान तृप्तात्मा, कूटस्थो विजितेन्द्रियः। ते योगी, समलाष्ठाश्मकांचनः ॥ सुहृन्मित्रानुनीनमध्यस्थ द्वेष्य बन्धुषु । साधुस्वपि च पापेषु समबुद्धिविशिष्यते ॥ -भगवद्गीता, अध्याय ६७, ८, ९, ३२ । ६. आनन्दघन ग्रन्थावली, शान्ति जिन स्तवन ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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