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आनन्दघन का रहस्यवाद
इससे प्रतीत होता है कि उपाध्याय यशोविजय के अनुसार आत्मा का यह आनन्द अनिर्वचनीय, अनन्त तथा अनुभवगम्य है । वास्तव में, आत्मा को आनन्द की उपलब्धि तभी होती है जब वह विकल्पों, विकारों, पौद्गलिक भावों अथवा कषायादि विभावों से रहित होकर निज स्वरूप में स्थित हो। इस प्रकार और सुख में मौलिक अन्तर यही है कि सुख विषयजन्य है और आनन्द आध्यात्मिक । आध्यात्मिक आनन्द नित्य शाखतु और 'ध्रुव' है । आत्मा की सर्वोत्तम उपलब्धि आनन्दमय अवस्था है ।
जिस आनन्द को परम साध्य माना गया है वह समभाव की साधना का प्रतिफल ही है और इसीलिए प्रसंगान्तर से आत्मा का साध्य समता भी है । भगवतीसूत्र में आत्मा के साध्य के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि “आया सामाइए, आया सामाइस्स अट्ठे " " - अर्थात् आत्मा समत्व रूप है और समत्व (समता भाव) ही आत्मा का साध्य है । आचारांग में भी समता को (आत्मा का) धर्म कहा गया है। इस समता धर्म की चर्चा सन्त आनन्दघन के दर्शन में भी अधिकांश पदों में है । एक पद में उन्होंने समता के साथ रमण करने का उपदेश देते हुए कहा है : साधो भाई समता संग रमीजे । ३
अर्थात् राग-द्वेष रहित होकर समभावी बन जाओ। उन्होंने इस आत्मधर्म समता का विस्तृत विवेचन शान्तिजिन स्तवन में भी किया है । वे इसमें उस समत्व योग की बात करते हैं जिसकी आचारांग ४, उत्तराध्ययन
१. भगवती सूत्र, १।९।२२८ ।
२.
समिया धम्मे आरियेहि पवेइए ।
- आचारांग, १|८|३ |
३.
आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ४ ।
४. तम्हा पण्डिए नो हरिसे, नो कुज्जे भूएहि ।
जाण पsिह सायं समिए एयाणुपस्सी || - आचारांग, २।८।२ ।
५. निममो निरहंकारो निःसंगो चत्तगारवो । समो य सव्व भूएसु, तसेसु थावरेसु य । लाभालाभे सुहे दुक्खे जीविए मरणे तहा । समो निंदापसंसासु तहा माणावमाणओ ॥ — उत्तराध्ययन, २८ ।
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